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तत्वार्थलोकवार्तिके
क्षायोपशमिकज्ञानैः सहभावविरोधात्मायिकस्येत्युक्तं पंचानामेकत्रासहभवनमन्यत्र ।
आवरणोंकी क्षयोपशम अवस्था हो जानेपर सम्भवनेवाले चार ज्ञानोंके साथ आवरणोंके क्षय होनेपर उत्पन्न होनेवाले केवलज्ञानका साथ साथ विद्यमान रहना विरुद्ध है । इस प्रकार एफ आत्मामें पांचों ज्ञानोंका साथ सम्भवना नहीं, इस बातको हम अन्य पहिले प्रकरणोंमें स्पष्टरूपसे कह चुके हैं । अथवा अन्य सिद्धान्तग्रन्थोंमें यों उक्त है।
भाज्यानि प्रविभागेन स्थाप्यानीति निबुद्धयतां । एकादीन्येकदैकत्रानुपयोगानि नान्यथा ॥५॥
इस सूत्रमें कहे गये " भाज्यानि " शब्दका अर्थ "प्रकरणप्राप्त विभाग करके स्थापन करने योग्य हैं " इस प्रकार समझलेना चाहिये । एक समयमें एक आत्मामें एकको गादि लेकरके चार ज्ञानतक जो सम्भवते हुये बताये गये हैं, वे अनुपयोग आत्मक हैं। अन्य प्रकारसे यामी उपयोगस्वरूप पूरी पर्यायको धार रहे नहीं हैं। अर्थात्-लब्धिस्वरूप ज्ञान तो दो, तीन, चार, तक हो सकते हैं । अभाव या विशुद्धियां कितनी ही लाद ली जाय तो बोझ नहीं बढता है। किन्तु उपयोगस्वरूप ज्ञान तो एक समयमें एक ही होगा, क्योंकि उपयोग पर्याय है। चेतना गुणका एक समयमें एक ही पर्याय हो सकती है। हां, क्षयोपशम तो स्वच्छताविशेष है। वे एक समयमें कई हो सकते हैं । जैसे कि स्वच्छ भीतमें मिट्टी, स्याही, धूआं, कूडा, आदिके पृथक् कर देनेपर कई प्रकारकी स्वच्छताएं रह सकती हैं । किन्तु मीतमें चित्र एक ही प्रकार लिखा जा सकता है । " एकस्मिन्न द्वावुपयोगौ" एक समय एक आत्मामें दो उपयोग नहीं सम्भव हो सकते हैं।
सोपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्यैकत्र यौगपद्यवचने हि सिद्धान्तविरोधः सूत्रकारस्य न पुनरनुपयोगस्य सह द्वावुपयोगौ न स्त इति वचनात् ।
एक आत्मामें उपयोगसहित अनेक ज्ञानोंका युगपत् हो जाना यदि कथन करते तो सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजको स्याद्वादसिद्धान्तसे विरोध होता । किन्तु फिर अनुपयोग (लब्धि) स्वरूप अनेक ज्ञानोंका एक ही कालमें एक आत्माके कथन करनेपर तो कोई सिद्धान्तसे विरोध नहीं आता है । क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं, ऐसा आकर प्रन्थोंमें वचन कहा हुआ है। "दसणपुग्वं गाणं छदुमत्थाणं ण दोहि उपयोगा जुग" छमस्थ जीवोंके बारह उपयोगोंमेंसे या इनके उत्तरभेद सैकडों उपयोगों से एक समयमें एक ही उपयोग हो सकता है । यधपि केवली भगवान् के एक समयमें केवज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग मान लिये हैं । " जम्हा केवलिणाहे जुगवं तदो दोषि" वह केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्मोंके क्षय हो जाने के कारण कथन कर दिया जाता है। केवलान अधिक प्रकाशमान पदार्थ है। अतः केवली मारमा