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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके यहां प्रकरण में दूसरे वादियोंके चेष्टित करनेका अनुवाद कर पुनः उसको निराकरण करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामी स्पष्ट भाषण कहते हैं । १०० नोपयोगी सह स्यातामित्यार्याः ख्यापयन्ति ये । दर्शनज्ञानरूपौ तौ न तु ज्ञानात्मकाविति ॥ ७ ॥ ज्ञानानां सहभावाय तेषामेतद्विरुद्धयते । क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति युक्तं ततो न तत् ॥ ८ ॥ श्री समन्तभद्र आचार्य दो उपयोगोंका साथ साथ होना नहीं मानते हैं। यहां कहे गये कि आर्य विद्वान् यह अर्थ बखानते हैं। किंतु ज्ञानस्वरूप दो उपयोगोंके ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग ये दो और श्रुतज्ञान अथवा चाक्षुषप्रत्यक्ष और रसना एक कालमें हो सकते हैं । इस प्रकार उनके एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं, इस सिद्धान्तवाक्यका जो उपयोग साथ नहीं होते हैं, । कि दर्शन और ज्ञानस्वरूप वे साथ हो जानेका निषेध नहीं हैं अर्थात् – एक उपयोग साथ नहीं हो सकते हैं । किन्तु मतिज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ऐसे दो आदिक कई ज्ञान तो कहने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि उन आर्योंके यहां कई उपयोग आत्मक ज्ञानोंका सहभाव कथन करनेके लिये इस सिद्धान्तवाक्यसे विरोध पडता है कि " क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् " श्री समन्तभद्र स्वामीने आप्तमीमांसा में कहा है कि क्षयोपशमसे जन्य जो ज्ञान स्याद्वादन्यायसे संस्कारयुक्त हो रहे क्रम क्रमसे होते हैं, वे भी प्रमाण हैं । तिस कारण इस प्रकार वह कई ज्ञानोंका सहभाव कथन करना युक्तिपूर्ण नहीं है । तत्त्र यही है कि रूप, रस आदि गुणों का एक समय में नीला, पीला, खड्डा, मीठा, आदिकमेंसे जैसे कोई एक ही परिणाम होता है, उसी प्रकार चैतन्यगुणका एक समय में उपयोगस्वरूप एक ही परिणाम होगा । 1 यदापि " क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति " समन्तभद्रस्वामिवचनमन्यथा व्याचक्षते विरोधपरिहारार्थं तदापि दोषमुद्भावयति । विरोध दोषका परिहार करनेके लिये जब कभी वे विद्वान् क्रमसे होनेवाले जो ज्ञान हैं, वे प्रमाण हैं, इस प्रकार श्री समन्तभद्र स्वामी के वचनोंका दूसरे प्रकारोंसे यों वक्ष्यमाण व्याख्यान करते हैं, तब भी उनके ऊपर श्रीविद्यानन्दी आचार्य दोषोंको उठाते हैं। 1 शद्वसंसृष्टविज्ञानापेक्षया वचनं तथा । यस्मादुक्तं तदेवार्यैः स्याद्वादनयसंस्थितम् ॥ ९ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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