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________________ ३३८ तत्वार्थश्वोकवार्तिके सत्ये च साधने प्रोक्ते वादिना प्रतिवादिनः । दोषानुद्भावने च स्यान्न्यकारो वितथेपि वा ॥ ७८ ॥ प्राच्ये पक्षेऽकलंकोक्तिर्द्वितीये लोकबाधिता । द्वयोर्हि पक्षसंसिद्धयभावे कस्य विनिग्रहः ॥ ७९ ॥ - वादी विद्वान करके समीचीन निर्दोषहेतुके भले प्रकार कह चुकनेपर और प्रतिवादीद्वारा दोषोंका उत्थापन नहीं करनेपर क्या प्रतिवादीका तिरस्कार होगा ? अथवा क्या वादीके द्वारा असत्य, सदोष, हेतुके कथन करनेपर और प्रतिवादीकी बोरसे दोषोंके नहीं उठानेपर प्रतिवादीका पराजय होगा ! बताओ। इन दो पक्षों से पूर्वका पक्षग्रहण करनेपर तो श्री अकंलक देवका निष्कलंक सिद्धान्त ही कह दिया जाता है। अर्थात्-वादीके द्वारा समीचीन हेतुके प्रयुक्त करमेपर और प्रतिवादीके द्वारा दोष नहीं उठाये जानेपर नियमसे प्रतिवादीका पराजय और वादीका जय हो जायगा। यही स्याद्वादियोंका निरवध सिद्धान्त है । हां, दूसरे पक्षका अवलम्ब लेनेपर तो लोकमें जन समुदाय करके बाधा उपस्थित कर दी जावेगी । कारण कि वादी और प्रतिवादी दोनोंके पक्षकी भळे प्रकार सिद्धि हुये विना भला किसका विशेष रूपसे निग्रह कर दिया गया समझा जाय ? अर्थात्-वादीने झूठा हेतु कहा और प्रतिवादीने कोई दोष नहीं उठाया ऐसी दशामें दोनोंके पक्षकी सिद्धि नहीं हुई है। अतः न तो प्रतिवादी करके वादीका निग्रह हुआ और न वादीकरके प्रतिवादी निग्रह स्थानको प्राप्त किया गया । फिर भी सदोष हेतुको कहनेवाले वादीका जय माना जायगा तो ऐसा निर्णय देना लोकमें बाधित पडेगा। इस कारण स्वपक्षकी सिद्धि करते हुये वादी करके दोषोंको नहीं उठानेवाळे प्रतिवादीका तिरस्कार प्राप्त होजाना मानना चाहिये ऐसा जैन सिद्धान्त है। अत्रान्ये पाहुरिष्टं नस्तथा निग्रहणं द्वयोः। तत्त्वज्ञानोक्तिसामर्थ्यशून्यत्वस्याविशेषतः ॥ ८ ॥ यथोपात्तापरिज्ञानं साधनाभासवादिनः । तथा सद्दषणाज्ञानं दोषानुद्भाविनः समं ॥ ८१ ॥ इस द्वितीय पक्षके विषयमें अन्य कोई विद्वान् अपने मतको अच्छा समझते हुये यों कह रहे हैं कि तिस प्रकार वादीके द्वारा झूठा हेतु प्रयुक्त किये जानेपर और प्रतिवादी द्वारा दोष नहीं उठानेपर दोनों वादी प्रतिवादियोंका निग्रह हो जाना हमारे यहां इष्ट किया गया है। क्योंकि तत्त्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यसे रहितपना दोनों वादी प्रतिवादियों के विद्यमान है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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