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________________ तत्वार्यशोकवार्तिके साध्यधर्मविरुद्धेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते । अन्यदृष्टांतधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुजानतः ॥ १०३ ॥ प्रतिज्ञाहानिरित्येव भाष्यकाराग्रहो न वा । प्रकारांतरोप्यस्याः संभवाचित्तविभ्रमात् ॥ १०४॥ " न्यायभाष्य " में लिखा है कि " साध्यधर्म प्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते प्रतिदृष्टान्त धर्मस्वदृष्टान्तेऽभ्यनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः ” अपने अमीष्ट साध्यस्वरूप धर्मसे विरुद्ध हो रहे धर्मकरके प्रत्यवस्थान ( दूषण ) उठानेपर अन्य प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मको अपने इष्ट दृष्टान्तमें स्वीकार कर लेनेवाले वादीका प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान हो जाता है । यह कथंचित् उचित है । किन्तु इस ही प्रकार प्रतिज्ञाहानि हो सकती है । अन्य कोई उपाय नहीं, ऐसा भाष्यकार वात्स्यायनका आग्रह करना ठीक नहीं है । क्योंकि वक्ताके चित्तमें विभ्रम हो जानेसे या अन्य प्रकारों करके भी इस प्रतिज्ञाहानिके हो जानेकी सम्भावना है । सच पूछो तो यह दृष्टान्तहानि है। बहुतसे मनुष्य अपने पक्षकी तो अक्षुण्णरक्षा करते हैं। किन्तु यहां वहांके प्रकरणोंकी मस्तिष्कको पचानेवाले वावदूकोंके सन्मुख उपेक्षापूर्वक स्वीकारता देदेते हैं । तभी उनसे पिंड छूटता है। विनश्वरस्वभावोयं शब्द ऐन्द्रियकत्वतः। यथा घट इति प्रोक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते ॥ १०५॥ दृष्टमंद्रियकं नित्यं सामान्यं तद्वदस्तु नः। . शरोपीति स्वलिंगस्य ज्ञानात्तेनापि संमतं ॥ १०६ ॥ कामं घटोपि नित्योस्तु सामान्यं यदि शाश्वतं । इत्येवं भाष्यमाणेन प्रतिज्ञोत्पाद्यते कथम् ॥ १०७ ॥ प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानका उदाहरण यों है कि यह शब्द ( पक्ष ) विनाश हो जाने स्वभाववाला है ( साध्य ) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय होनेसे (हेतु ) जैसे कि घडा ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार वादीके द्वारा मळे प्रकार कह चुकनेपर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान करता है कि इन्द्रिय जन्य ज्ञानका विषय सामान्य तो नित्य देखा जा रहा है । उसीके समान शब्द भी हमारे यहां नित्य हो जायो, पश्चात् इस प्रकार अपने कहे ऐन्द्रियिकत्व लिंगके हेत्वाभासपनेका ज्ञान हो जामेसे उस वादीने भी वादका अन्त नहीं कर यो सम्मत कर लिया कि अच्छी बात है। यदि सामान्य (जाति) नित्य है तो यथेष्ट रूपसे घट भी नित्य हो जालो । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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