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तत्वार्थो वार्तिके
यथा चेन्द्रियजज्ञानं विषयेष्वतिशायनात् । स्वेषु प्रकर्षानं तद्विद्भिर्विनिवेदितम् ॥ ७ ॥
और जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान ( पक्ष ) अपने नियत विषयों में अतिशयको उत्तरोत्तर अधिक प्राप्त हो रहा होनेसे ( हेतु ) परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहा ( साध्य ) उस इन्द्रियज्ञानको जाननेवाले विद्वानों करके विशेषस्त्ररूपसे कहा गया है, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान समझ लिया जाय । अर्थत्रक इन्द्रिय जीव अपनी स्पर्शन इन्द्रियसे चार सौ धनुष दूरतकके पदार्थको छू लेता है । द्वि इन्द्रियजीव आठ सौ धनुषके दूरतक वर्त रहे पदार्थको छू लेता है, इत्यादि असंज्ञी तक दूना जानना । संज्ञी जीव नौ योजन दूरवर्तीतिक पदार्थको छू लेता है । द्वि इन्द्रिय जीव रसना इन्द्रियसे चौसठ धनुष दूरतकके रसको चख लेता है । त्रि इन्द्रियजीव एक सौ अट्ठाईस धनुष तक दूरवर्ती पदार्थका रस जान लेता है । चौ इन्द्रिय जीव दौ सौ छप्पन धनुषतक अन्तरालपर रखे हुये पदार्थका रस चाट लेता है। असंही जीव पांच सौ बारह धनुषतक के स्थानान्तरपर स्थित हो रहे पदार्थ के रसको रसना इन्द्रियते जान लेता है। संज्ञी पंचेद्रिय जीव नौ योजनतक दूरपर स्थित हो रहे खटाई, कुटकी, आदिके रसको जिह्वा इन्द्रियसे जान लेता है । त्रि इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीव, घ्राण इन्द्रिय द्वारा क्रम सौ, दो सौ, चार सौ, धनुषतक दूर वर्त रहे पदार्थोंकी गन्धको सूंघ लेते हैं । संजीव घ्राण द्वारा नौ योजनतकके पदार्थको सूंघ लेता है । तथा चौ इन्द्रिय और असंज्ञीजीव इन्द्रिय द्वारा दो हजार नौ सौ चौअन और पांच हजार नौ सौ आठ योजन तकके पदार्थको देख लेते हैं। संज्ञी जीव सैंतालीस हजार दौ सौ सठि योजन तक्के पदार्थको देख लेता है । श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव आठ हजार धनुष दूर तकके शद्वको सुन लेता है । संज्ञी जीव बारह योजन दूरतक के शद्वको सुन लेता है । इस प्रकार इन्द्रियोंका विषय नियत है । प्राप्यकारी स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों द्वारा भी दूरवर्ती पदार्थोंका तिस प्रकार एक अत्रयवी रूप इन्द्रियदेशपर्यन्त उस दूरवर्ती पदार्थका नैमित्तिक परिणमन हो जानेसे प्रत्यक्ष कर लिया जाता है । यों चार इन्द्रियोंका प्राप्यकारित्व अक्षुण्ण प्रतिष्ठित है । यद्यपि चतुर ( चार ) इन्द्रिय जीव मक्खी, पतंग, आदिक भी आषाढमें प्रातःकाल सैंतालीस हजार सौ त्रेसठ योजन दूरवर्ती सूर्यको अप्राप्यकारी चक्षु द्वारा देख लेते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी उन दूरवर्ती सूर्य, चन्द्रमाको देख सकता है। सूर्यसे चन्द्रमा अस्सी योजन अधिक ऊंचा है। किन्तु विशेष ज्ञानकी अपेक्षा संज्ञीजविका ही बह चक्षुर्विषय नियत किया है । चक्रवर्ती सूर्य विमानमें स्थित हो रही जिन प्रतिमाका दर्शन कर लेता है । किन्तु मक्खी या साधारण मनुष्योंको वहांकी छोटी छोटी वस्तुओंका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है । अतः सामान्यरूपसे देखना यहां विवक्षित नहीं है। इसी प्रकार टेलीफोन
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