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तत्वार्थचिन्तामणिः
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भोक्ता है । जैन लोग भी मानते हैं मेरे द्वारा यह कार्य साध्य है । इस प्रकार साधने योग्य स्वरूपसे जिस पुरुषकरके यह जान लिया जाता है, वह अच्छे प्रकार साध्यरूप करके निजस्वरूप भोग्य कह दिया जाता है । जो आत्माका स्वरूप सिद्ध हो चुका भोग्य है, तितने मात्रसे वह नियोग नहीं है । क्योंकि भविष्य में साधने योग्यपनेकरके यहां भोग्यकी व्यवस्था है, जो स्वरूप भविष्य में भोगने योग्य होगा । अतः प्रेरकपनेसे भोग्यको नियोगपना इष्ट किया है। योग्य ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोंसे विशिष्ट आत्माका स्वरूप भोग्य है । अतः यह दसवां प्रकार नियोगका है ।
अर्थात् - भविष्यमें करने मोग्यस्त्ररूप नियोग है,
पुरुष एव नियोग इत्यन्यः ।
आत्मा ही नियोग है, इस प्रकार कोई अन्य प्रभाकर कह रहा है । ग्रन्थका वचन यह है :ममेदं कार्यमित्येवं मन्यते पुरुषः सदा ।
पुंसः कार्यविशिष्टत्वं नियोगः स्यादवाधितः ॥ १११ ॥ कार्यस्य सिद्ध जातायां तद्युक्तः पुरुषस्तदा । भवेत्साधित इत्येवं पुमान् वाक्यार्थ उच्यते ॥ ११२ ॥ यह मेरा कार्य है, इस प्रकार आत्मा सर्वदा मानता रहता है। इस कारण विशिष्टपना ही बाधाओंसे रहित हो रहा नियोग है । यह नियोग विधि लिङ्गका वाध्य अर्थ है । कार्यकी सिद्धि हो चुकनेपर उस समय कार्यसे युक्त हो रहा पुरुष साधा गया समझा जाता है । इस कारण कार्ययुक्त पुरुष ही यों वाक्यका अर्थ कहा गया है। मियोगका यह ग्यारहवां भेद है ।
पुरुषका कार्य से
सोऽयमेकादशविकल्पो नियोग एव वाक्यार्थ इत्येकांतो विपर्ययः प्रभाकरस्य तस्य सर्वस्याप्येकादशभेदस्य प्रत्येकं प्रमाणाद्यष्ट विकल्पानतिक्रमात् । यदुक्तम् ।
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सो यह पूर्वोक्त प्रकार ग्यारह मेदवाला नियोग ही वाक्यका अर्थ है । इस प्रकार प्रम क रोका एकान्तरूपसे आग्रह करना निरा विपर्यय ज्ञान है । क्योंकि उन ग्यारहों भी भेदवाले सभी नियोगका प्रत्येक प्रमाण, प्रमेय आदि आठ विकल्पों करके अतिक्रमण नहीं हो सकता है । अर्थात् - ग्यारहों भी नियोगोंमें प्रत्येकका प्रमाण, प्रमेय आदि विकल्प उठाकर विचार किया जायगा तो वे ठीक-ठीक रूपसे व्यवस्थित नहीं हो सकेंगे, जो ही रविगुप्त नामक विद्वानोंने कहा है ।
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प्रमाणं किं नियोगः स्यात्प्रमेयमथवा पुनः ।
उभयेन विहीनो वा द्वयरूपोथवा पुनः ॥ ११३ ॥