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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः जब कि सम्यग्दृष्टि आत्माके अर्थोकी परिच्छित्तिके समान ही मिथ्यादृष्टि आत्माके मी अोंका परिच्छेिद होता है, तो फिर कैसे विशेषरूपसे जाना जाय कि मिथ्यादृष्टिके तीन प्रकारका विपर्ययज्ञान हो रहा है । इस प्रकार यहां प्रकरणमें जिज्ञासा होनेपर दृष्टान्तसहित ज्ञापक हेतुको बढिया दिखलाते हुये श्री उमास्वामी महाराज संक्षेपसे मिथ्याज्ञानोंकी विशेषताको समझानेके लिये “ सदसतोरविशेषाद् " इत्यादि सूत्रको कहते हैं। मिथ्यादृष्टेरप्यर्थपरिच्छेदः सदृष्टयर्थपरिच्छेदेन समानोनुभूयते तत्कुतोऽसौ वेषा विपर्यय इत्यारेकायां सत्यां सनिदर्शनं ज्ञापकं हेतुमनेनोपदर्शयति । मिथ्यादृष्टिका भी अर्थपरिज्ञान करना जब सम्यग्दृष्टिके हुई अर्थपरिच्छित्तिके समान होता हुआ अनुभवा जा रहा है, तो फिर कैसे निर्णीत किया जाय कि वह विपर्ययस्वरूप मिथ्यावान तीन प्रकारका होता है । इस प्रकार किसी भद्रपुरुषकी आशंका होनेपर उदाहरणसहित ज्ञापक हेतुको श्री उमास्वामी महाराज इस सूत्रकरके दिखलाते हैं । व्याप्य हेतुसे साध्यकी सिद्धि सुलभतासे हो जाती है । यदि दृष्टान्त मिल जाय तब तो बालक भी समझ जाते हैं। परीक्षकोंका तो कहना ही क्या है। के पुनरत्र सदसती कश्च तयोरविशेषः का च यदृच्छोपलब्धिरित्याह । कोई पूछता है कि यहां सूत्रमें कहे गये फिर सत् और असत् क्या पदार्थ हैं ! और उन दोनोंका विशेषतारहितपना क्या है ? तथा यदृच्छा उपलब्धि मला क्या पदार्थ है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिकोंद्वारा उत्तर कहते हैं। अत्रोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति वक्ष्यति । ततोऽन्यदसदित्येतत्सामर्थ्यादवसीयते ॥३॥ अविशेषस्तयोः सद्भिरविवेको विधीयते । सांकर्यतो हि तद्वित्तिस्तथा वैयतिकर्यतः॥४॥ . इस सूत्रमें कहे गये सत् इस शब्द का अर्थ तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त हो , रहापन है। इस बातको स्वयं मूळ ग्रन्थकार पांचवें अध्यायमें स्पष्टरूपसे कह देवेंगे। उस सत्से अन्य पदार्थ यहां असत् कहा जाता है। विना कहे. ही यह तस्त्र इस व्याख्यात सत्की सामर्थ्यसे निर्णीत कर लिया जाता है। उन सत् , असत् , दोनोंका जो पृथक् भाव नहीं करना है, वह सज्जन पुरुषों करके विशेष किया गया कहा जाता है । अथवा विद्यमान हो रहे पदार्थोके साथ सत् और असत्का पृथग्भाव नहीं करना अविशेष कहा जाता है । तिस प्रकार उस पदार्थकी सब, असत
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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