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________________ १२८ तत्वार्थकोकवार्तिके पनेके संकरपनेसे अथवा व्यतिकरपनेसे बप्ति कर लेना मिथ्या जानोंसे साध्य कार्य है। सत्में सत् और असत् दोनोंके धर्मोका एक साथ आरोप देना संकरदोष है । परस्परमें एक दूसरेके अत्यन्ताभावका समानाधिकरण धारनेवाले पदार्योका एक अर्थमें समावेश हो जाना सांकर्य है। तथा सत्के धर्मोका असतमें चला जाना और असत्के धर्माका सत्में चला जाना इस प्रकार परस्परमें विषयोंका गमन हो जाना व्यतिकर है । विपर्ययज्ञानी जीव संकरपन और व्यतिकरपन दोषोंसे युक्त सत् असत पदार्थोको जान बैठते हैं। उनका ठीक, ठीक, विवेक नहीं कर पाते हैं। प्रतिपत्तिरभिप्रायमात्रं यदनिबन्धनं । सा यदृच्छा तया वित्तिरुपलब्धिः कथंचन ॥५॥ तीसरा प्रश्न " यदृच्छा उपलब्धि " के विषयमें है, उसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे अभीष्ट अभिप्रायको कारण मानकर जो ज्ञान होता है, वह प्रतिपत्ति है । और जिस कारण उस अमिप्राय ( समीचीन इच्छा ) को कारण नहीं मानकर मनमानी वह परणति तो यदृच्छा है। उस यह छाकरके किसी भी प्रकार इति हो जाना उपलन्धि कही गयी है। किमत्र साध्यमित्याह। कोई जिज्ञासु पूछता है कि इस सूत्रमें श्री उमाखामी महाराजने " सदसतोः भविशेषाव। यदृच्छोपलब्धेः " ऐसा हेतु बनाकर और उन्मत्तको दृष्टान्त बनाकर अनुमान प्रयोग बमाया है किन्तु यह बताओ कि इस प्रयोगमें साध्य या प्रतिज्ञावाक्य क्या है ! इस प्रकार आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं। मत्यादयोऽत्र वर्तन्ते ते विपर्यय इत्यपि । हेतोर्यथोदितादत्र साध्यते सदसत्त्वयोः ॥ ६ ॥ यहां सूत्रका बर्य करनेपर पूर्वसूत्रमें कहे गये वे मति आदिक तीन ज्ञान अनुवर्तन कर लिये जाते हैं। और " वे विपर्यय है।" यह भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिये । अतः यथायोग्य कहे गये "सत् और असत्की विशेषतासे यदृच्छा उपलब्धि " इस हेतु द्वारा यहां मति नादिकमें सतपने और असत्पनेका विपर्यय साधकर जान लिया जाता है । प्रतिज्ञा हेतु और उदाहरण ठीक ठीक बन जानेसे पूर्वसूत्रमें कहे गये सायकी अच्छे ढंगसे सिद्धि हो जाती है। तेनैतदुक्तं भवति मिथ्यादृष्टर्मतिश्रुतापधयो विपर्ययः सदसतोरपिशेषेण यहच्छी पलब्धरुन्मत्तस्येवेति ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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