SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ तत्वार्थ लोकवार्तिके काल सम्बन्धी ऐसे अनेकानेक जीव हैं। इस प्रकार मति आदिक तीन ज्ञानोंका कदाचित् कारणवश विपर्ययपना युक्तियोंसे साधदिया है। सुदृष्टिमोहाद्यकषायपाकान् मतिश्रुतावध्युपलब्धयः स्युः । सदोषतोश्च विपर्ययश्च पयो यथेक्ष्वाकुगतं कटूत्तं ॥ १ ॥ -* othoयवहारकी प्रसिद्धि अनुसार मिध्यादृष्टियोंके और सम्यग्दृष्टियोंके ज्ञानोंमें जब कोई विशेष अन्तर नहीं दीखता है तो फिर क्या कारण है कि मिथ्यादर्शन के साहचर्यमात्र से मिथ्यादृष्टियोंका घटज्ञान विपर्ययज्ञान कहा जाय और सम्यग्दृष्टियोंका उतना ही घटज्ञान समीचीन कहा जाय ? इस प्रकार कटाक्ष उपस्थित होनेपर श्री उमास्वामी महाराज हेतु और दृष्टान्त द्वारा प्रकृत अर्थको पुष्ट करनेके लिये स्वकीय मुखाभ्रसे सूत्र - आसार वर्षाते हैं । सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥ विद्यमान हो रहे और अविद्यमान हो रहे अर्थोकी अथवा प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय ant अविशेषता करके यदृच्छापूर्वक उपलब्धि हो जानेसे उन्मत्त पुरुषके समान जाननेवाले मिथ्यादृष्टि के विपर्ययज्ञान हो जाते हैं। अर्थात् — उन्मत्त पुरुष जैसे गौमें गाय है, ऐसा निर्णय करता है और कदाचित गौको घोडा भी जानलेता है, माताको कभी स्त्री और कदाचित् माता भी कह देता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीव सत् और असत् पदार्थमें कोई विशेषता नहीं रखता हुवा चाहे जैसा मनमानी ज्ञान उठाता रहता है । अतः उसका घटमें घटको जाननेवाला भी ज्ञान विपर्यय ज्ञान ही है। किं कुर्बभिदं सूत्रं ब्रवीतीति शंकायामाह । कोई गौरब दोषसे डरनेवाला शंकाकार कहता है कि किस नवीन अर्थका विधान करते हुये श्री उमास्वामी महाराज " सदसतोः " इत्यादि सूत्रको प्रस्पष्ट कह रहे हैं। ऐसी शंका होनेपर तार्किकशिरोमणि श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं । समानोर्थपरिच्छेदः सदृष्ट्यर्थपरिच्छिदा । कुतो विज्ञायते त्रेधा मिथ्यादृष्टेर्विपर्ययः ॥ १ ॥ इत्यत्र ज्ञापकं हेतुं दृष्टान्तं प्रदर्शयन् । सदित्याद्याह संक्षेपाद्विशेषप्रतिपचये ॥ २ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy