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________________ १९४ तत्वार्थ शोकवार्तिके - नहीं हो रही है । क्योंकि वह कोरी अनुष्ठेयता तो सम्पूर्ण वस्तुओंमें सामान्यरूपकरके वर्त रही है । हो, यदि वह अनुष्ठेयता तुमको प्रतिभास हो चुकी होती तब तो वह नियोग प्रतिमासके अन्तरंगमें प्रविष्ट हो जाने के कारण नित्य ब्रह्मरूप ही हुआ। ब्रह्मसे मिन दूसरा नियोग क्या पदार्थ है ! जिसका कि अनुष्ठान करना कर्मकाण्डवाक्योंसे माना जा रहा है ! और नहीं प्रतिभास रहे पदार्थका तो सद्भाव ही नहीं माना जाता है । इस प्रकार अद्वैतवादियों का पर्यनुयोग होनेपर तो हम जैन मी अपने प्राज्ञ मित्र नियोगवादीको सहारा देते हुये कहते हैं कि यों तो विधि भी वर्तमानकालमें प्रतीयमानपने करके प्रतिष्ठाका अनुभव नहीं कर रही है। किन्तु वर्तमानमें विधान किये जा रहेपन करके जानी जा रही है। क्योंकि वह विधीयमानता सभी पदार्थोंमें साधारणरूपसे पायी जाती है । जब कि विधिको विधीयमानताका अनुभव हो चुका तो फिर उससे अन्य कौनसा अंश विधि नामका शेष रह गया है ! जिसका कि विधान करना " दृष्टव्यो इत्यादिक उपनिषदोंके वाक्योंसे वखाना जा रहा है । भावार्थ-अद्वैतवादी " घटः प्रतिभासते " " पटः प्रतिभासते " घट प्रतिमास रहा है, पट प्रतिमास रहा है, ऐसी प्रतिभास ( ज्ञान ) क्रियाकी समानाधिकरणतासे घट, पट आदि सभी पदार्थीको ब्रह्मस्वरूप मान लेते हैं। उनके पास घट, पट आदिकको ब्रह्मस्वरूप बनाने के लिये प्रतिभासमानपना यह बलवान् हेतु है। घटपटादयः प्रतिमासान्तःप्रविष्ठाः प्रतिमासमानत्वात् प्रतिभासस्वरूपवत्" । नियोग भी अनुष्ठान करने योग्य होकर प्रतिभास चुका है । जो प्रतिमास चुका है, उसकी वर्तमानकालमें प्रतीति नहीं हो रही है। अतः नियोगको अप्रतीयमान कह दिया था, यहां भविष्यकालका अनुष्ठेयपन और वर्तमानकालका प्रतीयमानपन तथा भूतका प्रतिभास हो चुकापन इस प्रकार कालोंका व्यतिकर दिखलाते हुये विद्वानोंमें अच्छा संघर्ष हो रहा है। ननु दृष्टव्यादिवाक्येनात्मदर्शनादिविहितं ममेति प्रतीतेरप्रतिक्षेपार्हो विधिः कथमपाक्रियते ? किमिदानीमग्निहोत्रादिवाक्येन यागादिविषये नियुक्तोहमिति प्रतीतिर्न विद्यते येन नियोगः प्रतिक्षिप्यते । सा प्रतीतिरममाणमिति चेत्, विधिपतीतिः कथमप्रमाणं म स्यात् ? पुरुषदोषरहितवेदवचनोपजनितत्वादिति चेत्, तत एव नियोगपतीतिरप्यप्रमाण माभूत सर्वथाप्यविशेषात् । तथापि नियोगस्य विषयधर्मस्यासंभवे विधेरपि तद्धर्मस्थ न संभवः। पुनः विधिवादी अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि दृष्टव्य, मन्तव्य, सोहम्, इत्यादि वाक्यों करके मुझको आत्मदर्शन आदिकी विधि हो चुकी है। इस प्रकार प्राति हो रही है। अतः खण्डन करने योग्य नहीं हो रही विधि भला नियोगवादियों द्वारा कैसे निराकृत की जा रही है ! इसपर आचार्य कहते हैं कि क्योंजी ! अग्निहोत्र, विश्वजित् आदि यागोंको कहनेवाले
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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