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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः १९३ कारण उस बन चुके हुये सहारा देते हुये कह देंगे उस स्वरूप करके उसका करके विधिका अनुष्ठान यदि विधवादी यों कहें कि जिस रूपसे द्रव्यादिक विषय पूर्वसे विद्यमान हैं, उस स्वरूप करके उनका धर्म नियोग मी तो पहिले से ही विद्यमान है । इस नियोगका अनुष्ठान नहीं हो सकेगा । तब तो हम जैन नियोगवादीको कि ब्रह्म विधिका विषय जिस रूप करके सदा विद्यमान हो रहा है, विधि विषय भी निष्पन्न हो चुका है । ऐसी दशा में दृष्टव्य आदि वाक्यों भी कैसे किया जा सकता है बताओ । फिर भी विधिवादी यों कहें कि जिस स्वरूप करके विधि विषयी विद्यमान नहीं है, उस अंश करके विधिका अनुष्ठान किया जा सकता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहनेपर तो वह अनुष्ठान नियोगमें भी समानरूपसे किया जा सकता है 1 अर्थात - जिस अंश करके नियोग विषयी विद्यमान नहीं है, उस भाग करके कर्मकाण्डि द्वारा नियोगका अनुष्ठान किया जाता है । नियोग और विधिमें कोई अन्तर नहीं है । ? कथपसन्नियोगोऽनुष्ठीयते अप्रतीयमानत्वात् खरविषाणवत् इति चेत्, तत एव विधिरपि नानुष्ठेयः । प्रतीयमानतया सिद्धत्वादनुष्ठेयो विधिरिति चेत् नियोगोपि तथास्तु | विधवादी कहते हैं कि अंशरूपसे असत् हो रहे नियोगका मला अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि असत् पदार्थ प्रतीत नहीं किया जा रहा है । जो प्रतीत नहीं है, उसमें क्रिया नहीं की जा सकती है । अतः खरविषाणके समान असत् नियोगका करना नहीं बनता है । आचार्य कहते हैं कि यों कहने पर तो तिस ही कारणसे विधि भी अनुष्ठान करने योग्य नहीं ठहरेगी । क्योंकि आप अद्वैतवादियोंने भी विषय के असद्भूत अंश करके ही विधिका अनुष्ठान किया जाना माना था । यदि विधिवादी यों कहें कि हमारे यहां विधिको प्रतीति की जा रही है । अतः अप्रतीयमानत्व हेतु विधिमें नहीं रहा, किन्तु प्रतीत किये जा रहे स्वरूपकरके सिद्ध होनेके कारण विधिका तो अनुष्ठान किया जा सकता है । इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन कह देंगे कि नियोग भी तिस प्रकार अनुष्ठान करने योग्य हो जाओ, वह भी प्रतीति किये जा रहेपन करके सिद्ध है । अप्रतीयमानत्व हेतु वहां असिद्ध है । अतः विधिके समान नियोग भी प्रतीयमान होता हुआ अनुष्ठेय है । व्यर्थ पैंतरा बदलने से कार्य नहीं चलता है । 1 नन्वनुष्ठेयतयैव नियोगोवतिष्ठते न प्रतीयमानतया तस्याः सकलवस्तुसाधारणत्वात् अनुष्ठेयता चेत्प्रतिभाता कोन्यो नियोगो यस्यानुष्ठितिरिति चेत्, तर्हि विधिरपि न प्रतीयमानतया प्रतिष्ठामनुभवति किं तु विधीयमानतया सा चेदनुभूता कोन्यो विधिर्नाम : यस्य विधानमुपनिषद्वाक्यादुपवर्ण्यते । नियोगवादकी पुष्टिमें लग रहे जैनोंके ऊपर विधिवादीका प्रश्न है कि अनुष्ठान करने योग्यपने करके ही नियोगकी व्यवस्था हो रही है । प्रतीत किये जा रहेपन करके नियोगकी अवस्थिति 25
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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