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________________ ' १९२ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके सकेंगे और सर्व अंगोंमें सिद्ध बन चुका पदार्थ मला काहेको उपकार झेलने लगा । अतः विधिवादीके मन्तव्य अनुसार विधाप्यमानका धर्म विधि नहीं सिद्ध हो चुकी । यहां नियोगवादीकी ओरसे आचार्यांने विधिवादीके ऊपर आपादन किया है। और अष्टसहस्री में नियोगवादीके ऊपर विधिवादी द्वारा कटाक्ष वर्षा किये जानेपर भट्ट मीमांसकोंने विधिवादीको आडे हाथ लिया है । तथा विषयस्य यागलक्षणस्य धर्मे नियोगे तस्यापरिनिष्पन्नत्वात् स्वरूपाभावाद्वाक्येन प्रत्येतुमशक्यत्वस्य विधावपि विषयधर्मे समानत्वात् कुतो विषयधर्मो विधिः तिस ही प्रकार विधिवादी यदि नियोगवादीके ऊपर नियोगका निषेध करनेके लिये यों कटाक्ष करें कि प्राभाकरोंकी ओरसे यागस्वरूप विषयका धर्म यदि मियोग माना जावेगा आस्तां किन्तु वह याग अभी बनकर परिपूर्ण हुआ नहीं हैं । उपदेश सुनते समय तो उस यागका स्वरूप ही नहीं है । अतः अद्भूत यागके धर्म नियोगकी वाक्यकरके निर्णय करनेके लिये अशक्यता है । इसके उत्तर में आचार्य महाराज विधिवादकेि ऊपर भी यह अशक्यता दोष लगाये देते हैं। कि दर्शन, श्रवण आदि विषयोंके धर्म माने जाने रहे विधिमें भी जानने की अशक्यता दोष समान है । अर्थात् – " दृष्टव्योरेयमात्मा ” इत्यादि वाक्य सुननेके अवसरपर जब दर्शन, श्रवण ही नहीं तो उनका धर्म विधि भी विद्यमान नहीं है । असद्भूत पदार्थको वाक्यद्वारा प्रतीति नहीं हो सकती है । इस कारण विषयके धर्म माने गये नियोग के समान विधिकी भी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात् — नहीं । पुरुषस्यैव विषयतयावभासमानस्य विषयत्वात्तस्य च परिनिष्पन्नत्वान्न तद्धर्मस्य विधेरसंभव इति चेत्, तर्हि यजनाश्रयस्य द्रव्यादेः सिद्धत्वात्तस्य विषयत्वात्कथं तद्धर्मो नियोगोपि न सिध्येत् १ यदि विधवादीयों कहें कि हम दर्शम, श्रवण आदिको विधिका विषय नहीं मानते हैं विषयपने करके प्रतिभास रहे परमब्रह्मको ही हम विधिका विषय मानते हैं । और पुरुष पहिलेसे ही परिपूर्ण बना बनाया नित्य है । इस कारण उस पुरुषरूप विषयके धर्म हो रही विधिका असम्भव नहीं है । इस प्रकार विधिवादियों के कहनेपर तो हम जैन नियोगवादीकी ओरसे यों कह देंगे कि तब तो पूजनके अधिकरण हो रहे द्रव्य आत्मा, पात्र, स्थान, आदिक पदार्थ भी पहिले से सिद्ध हैं । अतः उन द्रव्य आदिकों का विषय हो जानेसे उनका नियोग भी क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा ? येन रूपेण विषयो विद्यते तेन तद्धर्मो नियोगोपीति तदनुष्ठानाभावे, विधिविषयो येन रूपेणास्ति तेन तद्धर्मस्य विधेः कथमनुष्ठानं १ येनात्मना नास्ति तेनानुष्ठानमिति चेत् नियोगेपि समानं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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