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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तथा विघाप्यमानस्य पुरुषस्य धर्मे विधावपि सिद्धस्य पुंसो दर्शनश्रवणानुमननध्यानविधानविरोधात् । तद्विधाने वा सर्वदा तदनुपरतिप्रसक्तिः । दर्शनादिरूपेण तस्यासिद्धौ विधानव्याघातः कूर्मरोमादिवत् । सिद्धरूपेण विधाप्यमानस्य विधानेऽसिद्धरूपेण चाऽविधाने सिद्धासिद्धरूपसंकरात् विधाप्येतरविभागासिद्धिस्तदुपासंकरे वा भेदप्रसंगादारमनः सिद्धासिद्धरूपयोस्तत्संबंधाभावादिदोषा संजननस्याविशेषः ।
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तिस ही प्रकार नियोगवादीकी ओरसे हम जैनवादी भी विधिवादीके ऊपर वैसा ही उलाहना दे सकते हैं। देखिये, विधान कराये जा रहे पुरुषके धर्म माने गये विधिमें भी हम कहते हैं कि परिपूर्ण निष्पन्न होकर सिद्ध हो चुके श्रोता नित्यपुरुषके दर्शन, श्रवण, अनुमान और ध्यानके विधानका विरोध है । जो पहिले दर्शन आदिले रहित हैं, वह परिणामी पदार्थ ही दर्शन आदिका विधान कर सकता है, नित्य कृतकृत्य नहीं । यदि सिद्ध हो चुका पुरुष भी उन दर्शन खादिकोका विधान करेगा तो सर्वदा ही उन दर्शन आदिकोंसे विराम नहीं ले सकनेका प्रसंग होगा । क्योंकि दो, चार वार दर्शन आदि कर चुकनेपर भी पुनः पुनः सिद्ध हो चुके, पुरुषकी दर्शन आदिक विधिमें प्रवृत्ति होना मानते ही चले जायेंगे । ऐसी दशामें भुक्तका भोजन पुनः मुक्तका भोजन करने के समान कभी विश्राम नहीं मिल सकता है। यदि उस आत्मा के धर्मविधिकी दर्शन प्रवण आदि स्वरूपोंकर के सिद्धि हो चुकी नहीं मानोगे तब तो कष्ठपरोम, चन्द्र आताप, सूर्य कौमुदी आदि समान उस असिद्ध हो रही असद्रूप विधिके विधानका व्याघात है । जो असिद्ध है, उसका विधान नहीं और जिसका विधान है, वह सर्वथा असिद्ध पदार्थ नहीं है। यदि विधान करने योग्यका सिद्धस्वरूप करके विधान मानोगे और असिद्धरूप करके विधान नहीं होना मानोगे तो सिद्ध-असिद्धस्वरूपों का संकर हो जानेसे यह सिद्धरूप विधाप्य है और इससे प्यारा इतना असिद्धरूप विधान करने योग्य नहीं है, इस प्रकारके विभागकी सिद्धि नहीं हो सकी । यदि उन विधाय और अविधाप्य रूपोंका एकम एक हो जाना स्वरूपसांकर्य नहीं माना जायगा, तब तो उन दोनों रूपोंका आत्मासे भेद हो जानेका प्रसंग होगा । सर्वथा भिन्न पडे हुये उन सिद्ध बसिद्ध दो रूपोंका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि दोनोंका परस्परमें कोई उपकार नहीं है । यदि सम्बन्ध जोडने के लिए उपकारकी कल्पना की जायगी तो पूर्वमें नियोगबादी के लिये उठाये गये संबंधका अभाव, उपकार कल्पनाका नहीं बन सकना, आदिक दोषोंका प्रसंग वैसाका बैसा ही तुम विधिवादियोंके ऊपर लग बैठेगा, सर्प और नागके समान नियोग और विधिमें कोई विशेषता नहीं है। आमा उपकार्य माननेपर आत्माका नित्यपना बिगडता है। यदि दो रूपोंको उपकार्य माना जायगा सो सिद्धरूप तो कुछ उपकार झेलता नहीं है । और गनश्रृङ्गके समान असिद्ध पदार्थ भी किसीकी ओरसे श्राये हुये उपकारोंको नहीं धार सकता है । फिर भी उन सिद्ध असिद्ध रूपोंको कथंचिद् असिद्ध -आनोगे ? तो वे जिस अंशमें सिद्ध होयंगे सिंहविषाणके समान दे उपकारको प्राप्त नहीं कर