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तत्वार्थोकवार्तिके
मतः पही अच्छा है कि बन चुके को पुनः नहीं बनाया जाता है। नित्य पुरुषके धर्म हो रहे, उस नियोगका कोई भाग असिद्ध तो है नहीं । हां, किसी असिद्ध रूपको नियोज्य माना जावेगा, तब तो पन्ध्यापुत्र, अश्वविषाण, बादिके समान सर्वथा असिद्ध पदार्थको नियोज्यपनेका विरोध है। पदि आमाके धर्म हो रहे नियोगको किसी एक सिद्धस्वरूपकरके नियोज्यपना और उस ही नियोगको असिदस्वरूपकरके अनियोग्यपना माना जावेगा, तब तो एक मारमाके सिदस्वरूप और जसिद्धस्वरूपोंका संकर हो जानेसे नियोज्यपन बोर बनियोज्यपनके विभागकी असिद्धि हो जावेगी । दूध और रेके समान संकरको प्राप्त हो रहे दो स्वभावोंसे पुक्त हुये नियोगसे अमिम आत्माका उन धोकरके विभाग सिद्ध नहीं होता है। पदि उन सिद्ध असिद्ध रूपोंका संकर होना नहीं मानोगे तो उन मिल दो रूपोंसे अमिन्न हो रहे आत्माके मेद हो जानेका प्रसंग या जावेगा । अथवा नित्य वात्मासे वे दो रूप न्यारे हो जायेंगे। ऐसी दशामें वे सिद्ध असिद्ध दो रूप मात्माके हैं । इस व्यवहारका नियामक सम्बन्ध तुम्हारे पास कोई नहीं है । क्योंकि राजाका पुरुष, गुरुका शिष्य या पुरुषका राजा, शिष्यका गुरु, यहाँ परस्परमें बाजीविका देना, चाकरी करना, पढाना, सेवा करना, आदि उपकार करनेसे स्वस्वामिसम्बन्ध गुरुशिष्यसम्बन्ध माने जाते हैं । किन्तु उपकार नहीं होनेके कारण उन सिद्ध असिद्धरूप और कटस्थ नित्य बास्माका कोई षष्ठी विधायक सम्बन्ध नहीं हो पाता है। यदि आत्मा और उन रूपोंमें उपकार करनेकी कल्पना की जायगी तो हम विधिवादी नियोगवादीसे पूछते हैं कि उन दो रूपों करके आत्माके उपर उपकार किया जायगा ! अथवा आत्माकरके दो रूपोंके ऊपर उपकार किया जायगा ! बतायो । प्रथम विकल्प अनुसार यदि उन दो रूपोंकरके आत्माको उपकार प्राप्त करने योग्य माना जायगा, तब तो आत्माके नित्यपनेकी हानि हो जायगी । क्योंकि जो उपकृत होता है, वह कार्य होता है । द्वितीय विकल्प अनुसार उन दो रूपोंको आत्माकरके उपकार प्राप्त करने योग्य मानोगे तो पहिला दोष ट गया। किन्तु सिद्ध हो चुके रूपको तो सभी प्रकारोसे उपकार्यपनका व्याघात है। कारण कि जो सिद्ध हो चुका है, उसमें उपकारको धारने योग्य कोई उत्पाय बंश शेष नहीं है । और दूसरे असिद्धरूपको भी यदि उपकार प्राप्त करने पोग्य माना मायगा, तब तो भाकाशपुष्प, शशविषाण आदि असिद्ध पदार्थीको भी उपकार खेळमेषापनका प्रसंग हो जायेगा। यदि नियोगवादी सिद्ध बसिद्ध दोनों रूपोंका मी कथंचिद् कोई स्वरूप बसिद्ध हो रहा स्वीकार करेंगे तो प्रकरण प्राप्त बोधकी निवृत्ति नहीं हो सकेगी। अर्थात् -सिद्ध असिद्ध रूपोंमें मी कपंचिद् सिद्ध बसिद्धपना स्वीकार किया जायगा, तो सिद्धके अनुष्ठानकी विरतिका अभाव दोष लगेगा, असिद्धरूप तो बण्यापुत्रके समान नियोज्य हो नहीं सकता है। इत्यादिक प्रभ उठते चले जायेंगे । अतः अनवस्था दोषका प्रसंग हो जायगा । इस प्रकार विधिवादीका नियोगवादीके उपर उगहना हो रहा है।