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तत्वार्थचिन्तामणिः
दो भेदोंका परामर्श किया गया है। विशेषका रहना दोमें बताकर भी यह शंका खडी रहती है कि ऋजुमतिकी अपेक्षासे विपुलमति तो विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेषाक्रान्त हो जायगा । क्योंकि सूत्रकारने स्वयं विपुलमतिके विशेष धर्मोका कण्ठोक्त प्रतिपादन कर दिया । वक्रता अगाही महान् विबुद्धिके गुणों की विशेषताओंको बडे बडे पुरुष भी वखान देते हैं । किन्तु ऋजुविषयी सरल ऋजुमतिकी विशेषताओंका कंठोक उच्चारण नहीं किया गया है । अतः ऋजुमति विलमतिकी विशेषताऐं तो जान लीं जायगी, किन्तु विपुलमतिसे ऋजुमतिकी विशेषताऐं जानना अशक्य है । इस शंकाका उत्तर श्रीविद्यानन्द आचार्यने बहुत अच्छा दे दिया है । गम्यमान अनेक विषयोंका उच्चारण नहीं करना ही महान् पुरुषोंकी गम्भीरताका प्रद्योतक है । साहित्यवाकोंने “ वक्रोक्तिः काव्यजीवितं " स्वीकार किया है । सिद्धान्त यह है कि सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजके वचनोंमें इतना प्रमेय भरा हुआ है कि राजवार्तिक, लोकवार्तिकसारिखी अनेक टीकायें भी बना की जांय तो भी बहुतसा प्रमेय बच रहेगा। अल्पविशुद्धि और प्रतिपात इन दो धर्मोकर के ऋजुमतिज्ञान भी विपुलमतिसे विशेष विशिष्ट है । ये दोनों मन:पर्ययज्ञान सम्यग्दृष्टी, संयमी तथा ऋद्धियोंको प्राप्त हो चुके किन्हीं किन्हीं वर्द्धमानचारित्रवाळे मुनियोंके होते हैं। श्रेणिओंमें उपयोग आत्मक तो श्रुतज्ञान वर्त रहा है । एकाग्र किये गये अनेक श्रुतज्ञानोंका समुदाय ध्यान पडता है । अतः मोक्ष उपयोगी तो श्रुतज्ञान है । परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमति, विपुलमति, इनमें से कोई भी ज्ञान आत्मध्यानमें विशेष उपयोगी नहीं है । रूपी पदार्थका पूर्ण प्रत्यक्ष कर लेनेपर भी हमें क्या लाभ हुआ ? यानी कुछ भी नहीं । किसी किसी केवलज्ञानीको तो पूर्व में अवधि, मन:पर्यय कोई भी प्राप्त नहीं हुये, मात्र श्रुतज्ञानसे सीधा केवलज्ञान हो गया फिर भी इन ज्ञानोंके सद्भावों का निषेध नहीं किया जा सकता है । ऋजुमतिका प्रतिपात होना सम्भवित है । बिपुलमतिका नहीं । अधिक विस्तारको आकर ग्रन्थोंमें देखो ।
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विशुद्धयप्रतिपाताल्पविशुद्धिप्रतिपातनैः । ऋजोर्विपुलश्वेतस्मादृजुर्द्विष्ठेविंशेषितः ॥ १ ॥
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मन:पर्यय के विशेष भेदोंका ज्ञान कर अब अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानकी विशेषताओंकी जिज्ञासा रखनेवाले शिष्योंके प्रति श्री उमास्वामी महाराजके हृदय मंदिर से शब्दमयी सूत्रमूर्तिका अभ्युदय होता है ।
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः ॥ २५ ॥
आत्मप्रसाद, ज्ञेयाधिकरण, प्रभु और विषयोंकी अपेक्षासे अवधिज्ञान तथा मन:पर्यय ज्ञानमें विशेष ( अन्तर ) है ।