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________________ तस्वार्थ श्लोक वार्तिके 1 कारण तो उत्तरवर्ती पर्यायमात्रको बनाकर या जीवोंके ज्ञानमें अवलम्ब कारण बन कर नाममात्रके कारण होते हुये जगत्से यों ही अपनी सत्ताको उठा के जाते हैं। मुझ भाषा टीकाकारका तो ऐसा विचार है कि जगत् के सम्पूर्ण पदार्थ अपने करने योग्य सभी क्रियाओंको कर ही नहीं पाते हैं। सज्जन मनुष्य हिंसा, झूट, चोरी, मांसभक्षण, कुशील, पैशून्य, अपकार आदि दुष्टताओंको कर सकते हैं । दुष्टजीव भी अहिंसा, सत्य, आदि व्रतोंको पाल सकते हैं। राजा महाराजा या धनपतियों के यहां न, वाइन, वस्त्र, उपवन, दास, आदि व्यर्थ पडे हुये हैं । वे ठलुआ पदार्थ साधारण पुरुषोंके काम आ सकते हैं। किन्तु उनकी निमित्तकारण शक्तियां बहुभाग व्यर्थ जाती हैं । विच्छू, सांप, संखिया, आदि विषेले पदार्थ असंख्य जीवोंको मार सकते हैं । किन्तु सभी अपनी मरणशक्तिका उपयोग नहीं कर पाते हैं । बहुभाग विषयों ही व्यर्थ अपना खोज खो देते हैं । बन की अनेक वनस्पतियां रोगोंको दूर कर सकती हैं। क्यों जी, क्या वे सभी औषधियां अपना पूरा कार्य (जौहर दिखलाती हैं ? मस्तिष्क या शरीरसे कितना भारी कार्य किया जा सकता है । क्या सभी जीव उन कार्योंको कर डालते हैं ? " मरता क्या न करता " घिरनेपर या किसीसे लडनेका अवसर आनेपर मृत्यु से बचने के लिये जीवनपर खेलकर मनुष्य बहुत पुरुषार्थ कर जाता है । किन्तु सदा व्यवहार में उससे चौथाई या आठवां भाग भी पुरुषार्थ करनेके लिये नानीकी स्मृति आ जाती है। सभी अग्नियां, बिजकियां, तेजाव, ये शरीरको जला सकते हैं। सभी पानी प्यासको बुझा सकते हैं । सभी सोने, चांदी, खांडके जूते या चूल्हे बन सकते हैं। सभी उदार पुरुष तुच्छता करनेपर उत्तर सकते हैं। सभी युवा, स्त्री, पुरुष, व्यभिचार कर सकते हैं। सभी धनाढ्य पुरुष इन दीन सेवकों के निन्ध कार्यको कर सकते हैं । किन्तु इनमेंसे कितने अत्यल्प कारण अपने योग्य कार्योंको कर पाते हैं इस बातको आप सरलतासे समझ सकते हैं। एक अध्यापक मल्ल, सेवक, या घोडा अपनी पूरी शक्तियों का व्यय नहीं कर देता है । सिद्धान्त यह निकलता है कि सभी कारणोंका निर्णय पीछे होनेवाली क्रियाओंसे ही नहीं करना चाहिये । प्रकरण में प्रतिवादीकी ओरसे यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आकाशमें क्रिया हो जानेका कारण वायु आकाश संयोग विद्यमान है । किन्तु महापरिमाणसे क्रियाका प्रतिबन्ध हो जानेसे क्रिया नहीं हो पाती है । जैसे कि बडी शिलामें अधिक गुरुत्वसे प्रतिबन्ध हो जाने के कारण मुक्कका संयोग विचारा सरक जाना, गिरजानारूप क्रियाको नहीं पैदा कर सकता है । क्रिया करनेकी स्वरूपयोग्यता सभी समर्थ असमर्थ, कारणोंमें माननी चाहिये । कारणों में योग्यता देख ली जाती है । भविष्य में होनेवाले फलोंका अल्पज्ञोंको प्रत्यक्ष नहीं हो जाता है । ४९४ अथ क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वामाकाशसंयोगोन्यश्चान्यत् क्रियाकारणमिति मन्यसे, तर्हि न कश्विद्धेतुरनैकांतिकः स्यात् । तथाहि । अनित्यः शब्वोऽमूर्तस्वात्सुखादिवदित्यत्रामूर्तत्वहेतुः शन्योन्यश्चाकाशे तत्सदृश इति कथमस्याकाशेनानैकां
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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