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________________ तार्थचिन्तामणिः उद्योतकर पण्डित तो इस प्रकार कहते हैं कि मला जातिका लक्षण तो इस नामसे ही निकल पडता है । अपने पक्षकी स्थापना करनेवाले हेतुके वादीद्वारा प्रयुक्त किये जानेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा जो उस पक्षका प्रतिषेध करनेमें नहीं समर्थ हो रहा हेतुका उपजाया जाना है, वह जाति कही जाती है। अब आचार्य कहते हैं कि यों कह रहा वह उद्योतकर पण्डित भी प्रसंगका यानी परपक्षका निषेध करनेके लिये कहे गये हेतुका उपजना जाति हैं, इस प्रकार यौगिक अर्थके अनुसार अन्वर्थ नाम संकीर्तनको धारनेवाली जातिका ही बखान कर रहा है । अन्यथा न्यायभाष्य प्रन्थसे विरोध हो जावेगा । अर्थात् - दूसरे रूढि या योगरूढ अर्थ अनुसार जातिसंज्ञा यदि मानी जायगी तो उद्योतकरके कथनका वात्स्यायन के कथनसे विरोध पडेगा । ४५९ कथमेवं जाति बहुत्वं कल्पनीयमित्याह । कोई जातिवादी नैयायिकों के प्रति प्रश्न उठाता है कि जब साधर्म्य और वैधर्म्यकर के दूषण उठानारूप जाति एक ही है तो फिर इस प्रकार जातिका बहुतपना यानी चौवीस संख्यायें किस प्रकारसे कल्पना कर ली जावेगी ? प्रयत्नके विना ही लोकमें जातिका एकपना प्रसिद्ध हो रहा है । जैसे कि गेहूं, चना, गाय, घोडा, आदि जातिवाचक शब्द एकवचन है । इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर नैयायिकों के उत्तरका अनुवाद करते हुए श्री विद्यानन्दस्वामी अब समाधानको कहते हैं । सधर्मत्वविधर्मत्त्वप्रत्यवस्थाविकल्पतः । कल्प्यं जाति बहुत्वं स्याद्यासतो ऽनंतशः सताम् ॥ ३९५ ॥ समानधर्मापन और विधर्मापन करके हुये दोष प्रसंगके विकल्पसे जातियोंका बहुतपना कल्पित कर किया जाता है। अधिक विस्तारकी अपेक्षासे तो सज्जनों के यहां जातियोंके अनन्तवार विकल्प किये जा सकते हैं । जैनोंके यहां भी अधिक प्रभेदोंकी विवक्षा होनेपर पदार्थोंके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो जाते हैं । गौतम सूत्रमें कहा है कि " तद्विकल्पाज्जातिनिग्रहस्थान बहुत्वम् " यहां तत् पदसे " साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्" इन जाति और निग्रहस्थानके लक्षणोंका परामर्श हो जाता है । अतः उक्त अर्थ निकल आता है । यथा विपर्ययज्ञानाज्ञाननिग्रहभेदतः । बहुत्वं निग्रहस्थानस्योक्तं पूर्वं सुविस्तरम् ॥ ३१६ ॥ तंत्र ह्यप्रतिभाज्ञानाननुभाषणपर्यनु- । योज्योपेक्षण विक्षेपा लभंतेऽप्रतिपत्तिताम् ॥ ३१७ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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