SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ तत्त्वाथश्लोकवार्तिके हुआ यदि उदाहरणके वैधर्म्यते जब उलाहना उठा रहा है, उस समय वह असत् उत्तरको कहने वाला जातिवादी कहा जावेगा, जब कि वह वादीके कहे गये हेतुका प्रत्याख्यान नहीं कर सका है, तिस कारणसे उस प्रतिवादीके वचन दूषणभास हैं । अर्थात्-वस्तुतः दूषण नहीं होकर दूषण सदृश दीख रहे. हैं । प्रतिवादीको समीचीन दूषण उठाना चाहिये, जिससे कि वादीके पक्षका या हेतुका खण्डन हो जाय । जब वादीका हेतु अक्षुण्ण बना रहा तो प्रतिवादीका दोष उठाना कुछ भी नहीं। किसी कविने अच्छा कहा है " किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः, परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः" उस कविके काव्यसे क्या ! और उस धनुषधारीके बाण करके क्या ! जो कि दूसरेके हृदयमें प्रविष्ट हो कर आनन्द और वेदनासे उसके शिरको नहीं घुमा देवे । मधपीके शिर समान आनन्द या दुःखमें शिरका हिलोरें लेना घुर्णना कही जाती है । प्रत्युत कहीं कहीं ऐसे दोषामास गुणस्वरूप हो जाते हैं । जैसे कि चन्द्रप्रभ चरित काव्यमें लिखा है कि " स यत्र दोषः परमेव वेदिका शिरः शिखाशायिनि मानभञ्जने, पतत्कुले कूजति यन जानते रसं स्वकान्तानुनयस्य कामिनः ॥१॥ तथा अमरसिंहों हि पापीयान् सर्व भाष्यमचूचुरत् ” अमरकोषको बनानेवाला अमरसिंह बडा भारी पापी था, जो कि सम्पूर्ण माण्य आदि महान् ग्रन्थोंको चुरा बैठा, यह व्याज निन्दा है। जिससे कि बहुतसे गुण व्यक्त हो जाते हैं । दूषणामासोंसे कोई यथार्थमें दूषित नहीं हो सकता है। तथोदाहतिवैधात्साध्यस्यार्थस्य साधनं । हेतुस्तस्मिन् प्रयुक्तेपि परस्य प्रत्यवस्थितिः ॥ ३१३ ॥ साधम्र्येणेह दृष्टांते दूषणाभासवादिनः । जायमाना भवेज्जातिरित्यन्वर्थे प्रवक्ष्यते ॥ ३१४ ॥ तथा उदाहरणके वैधय॑से साध्य अर्थको साधनेवाला हेतु होता है । वादीद्वारा उस हेतुके भी प्रयुक्त किये जानेपर दूसरे प्रतिवादीके द्वारा दृष्टान्तमे साधर्म्यकरके जो यहां प्रत्यवस्थान देना है, वह दूषणामासको कहनेवाले प्रतिवादीकी प्रसंगको उपजा रही जाति होगी। इस प्रकार जाति शब्दका निरुक्तिद्वारा धात्वर्थ अनुसार अर्य करनेपर भळे प्रकार उक्त लक्षण कह दिया जावेगा। अतः असत् उत्तरको कहनेवाले जातिवादी प्रतिवादीका पराजय हो जाता है। और समीचीन को कहनेवाले वादीकी जीत हो जाती है। उद्योतकरस्त्वाह-जातिर्नामस्थापनाहेती प्रयुक्त यः प्रतिषेधासमों हेतुरिति सोपि प्रसंगस्य परपक्षपतिषेधार्थस्य हेतोर्जननं जातिरित्यन्वर्थसंज्ञामेव जाति व्याचष्टेऽन्यथा न्यायभाष्यविरोधात् ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy