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तत्त्वार्यशोकवार्तिके
सभी धर्मोके नहीं मिलनेसे दृष्टान्त नहीं हो सकेगा। अतः दृष्टान्तमें वर्ण्यपनेका यानी सन्दिग्धसाध्यसहितपनका आपादन करना उचित नहीं । इसी प्रकार अवर्ण्यसमामें भी वैध→से यानी निश्चितसाध्यवाले दृष्टान्तके वैधर्म्य हो रहे संदिग्ध साध्य सहितपनेसे पक्षमें प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है। दृष्टान्तमें देखे गये व्याप्तियुक्त हेतुका पक्षमें सद्भाव हो जानेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है। किन्तु दृष्टान्तमें वर्त रहे हेतुके परिपूर्ण धर्मोसे युक्त हो रहे हेतुका पक्षमें सद्भाव मानना उचित नहीं है । अतः आत्मा, शब्द, आदि पक्षोंमें दृष्टान्तके समान निश्चित साध्ययुक्तपनका आपादन नहीं किया जा सकता है, जिससे कि स्वरूपासिद्ध या आश्रयासिद्ध दोष हो सकें । इसी प्रकार विकल्पसमामें भी प्रकरण प्राप्त साध्यके व्याप्य हो रहे प्रकृत हेतुसे साध्यसिद्धि जब हो चुकी है, तो उसके वैधर्म्यसे यानी किसी एक अनुपयोगी धर्मका कहीं व्यभिचार उठा देने मात्रसे प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध नहीं संभवता है । यों कृतकत्व, गुरुत्व, अनित्यत्व, मूर्त्तत्वका टेडा मेडा मिलाकर चाहे जिस किसीसे व्यभिचार दिखला देनेसे ही प्रकृत हेतु साध्यका असाधक नहीं हो जाता है । अति प्रसंग हो जायगा, देखिये । जगत्में जो अधिक आवश्यक होता है, उसका मूल्य अधिक होता है । किन्तु शरीर स्वस्थताके लिये भोज्य पदार्थोसे जल और जलसे वायु अधिक आवश्यक है। किन्तु मूल्य इनका उत्तरोत्तर न्यून है । भूषण, वस्त्र, अन्नमें, भी यही दशा है । तथा लोकमें देवदत्तका स्वामी देवदत्तको मान्य है । संभव है वह प्रभु देवदत्तके पुत्र जिनदत्तको भी मान्य होय । एतावता जिनदत्तको माननीय समझनेवाले इन्द्रदत्तको या इन्द्रदत्तके छोटे भाईको भी वह स्वामी माननीय होय ऐसा नियम नहीं देखा जाता है । लौकिक नातोके अनुसार जमाताका सत्कार किया जाता है। किन्तु जामाताका जामाता और उसका भी जामाता ( जमाई ) यों त्रैराशिक वित्रिके अनुसार अत्यधिक सत्कार करने योग्य नहीं बन बैठता है । कहीं कही तो उत्तरोत्तर मान्यता बढते बढ़ते चौथी पांचवीं कोटिपर जाके नाते विशेष हलकी पड जाती है । जीजाका जीजा उसका भी जीजा पुनः उसका भी जीजा तीसरी चौथी कोटिपर सालेका साला और उसका भी साला या उसका भी साला हो जाता है । तथा लडकी की ननद और उसकी भी ननद कहीं पुत्रवधू हो जाती है। शिष्यों के शिष्य कहीं गुरुजीके जामाता बन बैठते हैं । न्यायालयमें अधिकारी देवदत्तके सन्मुख देवदत्तके पिता के अधिक उम्रबाळे मान्य मित्रको विनीत होकर वक्तव्य कहने के लिये बाध्य होना पड़ता है। उपकारीका उपकारी मनुष्य कचित् प्रकृत मनुष्यका अपकार कर बैठता है। बात यह है कि खण्ड रूपसे दोष या गुणके मिल जानेपर परिपूर्ण रूपसे वह नियम नहीं बना लिया जाता है। जिससे कि यों बादरायण संबन्ध घटाकर अनेकांतिक दोष हो सके । इसी प्रकार साध्यसमा जातिमें भी प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । जब कि व्याप्य हेतुसे पक्षमें साध्यकी सिद्धि हो जाती है, तो पुनः पक्ष, दृष्टान्त, आदिक भी इस वादी करके नहीं साधे जाते हैं । यदि ऐसा माना जायगा तो कहीं भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । प्रतिवादीका दूषण उठाना भी नष्ट भ्रष्ट हो जावेगा । वहां भी