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________________ ३३६ तत्वार्यश्लोकवार्तिके "" "" " वन्हिमान् धूमातका धूम हेतु " पकड कियाजाय " जो जो रसवाम् हैं वे वे रूपवान् हैं जैसे कि आम्रफल, यह उदाहरण कहींका उठा लिया जाय और " छायासे व्याप्य हो रहे छत्र हेतुसे युक्त यह स्थान है, यह कहींका उपनय जोड दिया जाय, तिस कारण आत्मा अव्यापक है, यह कहीं का निगमन उठा लिया जाय, ऐसे भिन्न भिन्न प्रतिज्ञा आदिकी जैसी एक ही अर्थको साधने में संगति नहीं बैठती है, उसी प्रकार निगमनको कहे विना समीचीन अनुमानके चारों अवयवोंकी भी एक अर्थको साधने के लिये संगति नहीं मिलेगी । चारों अवयव इधर उधर मारे मारे फिरेंगे, अतः उपनयसे भी अच्छा प्रयोजन निगमनका सबको एक में अन्वित करदेना है । तथा प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकं स्यादन्यथा तस्या न साधनांगतेति यदुक्तं तदपि स्वमतघातिधर्मकीर्तेरित्याह । तथा बौद्धोंने एक स्थानपर यह भी आग्रह किया है कि प्रतिपाद्य शिष्यके अनुरोधसे प्रतिज्ञा, हेतु, आदिक जितना भी कुछ कहा जायगा वह साधनांगका कथन है । उससे निग्रह नहीं हो पाता है । हां, यदि उससे भी अतिरिक्त भाषण किया जायगा तो असाधनाङ्गका कथन हो जानेसे वादीका निग्रहस्थान हो जायगा । जब कि प्रतिज्ञावाक्यसे ही साध्यकी सिद्धि होने लगजाय तो हेतु दृष्टान्त, आदिका, कथन करना व्यर्थ पडेगा । अन्यथा यानी प्रतिज्ञासे साध्य सिद्धि हो जानेको नहीं मानोगे तो उस प्रतिज्ञाको साध्यसिद्धिका साधक अंगपना नहीं बन पायेगा । इस कारण हेतु, दृष्टान्त, आदिके कथन भी कचित् वादके लिए निग्रहस्थान में गिरानेवाले हो जायेंगे। यह जो बौद्धोंने कहा था वह भी धर्मकीर्ति बौद्ध विद्वान् के निजमतका घात करनेवाला है, इसी बातको श्री विद्यानन्द वार्तिक द्वारा कहते हैं । बात यह है कि वादीको प्रतिवादी या शिष्यके अनुरोधसे कथन करनेका नियम करना अशक्य है । जीतने की इच्छा को लिये हुये बैठा हुआ प्रतिवादी चाहे जैसे कहनेवाले वादीकी भर्त्सना कर सकता है कि तुमने थोडे अंग कहे हैं। मैं इतने स्वल्प साधनांगों से साध्यनिर्णय नहीं कर सकता हूं अथवा तुमने बहुत साधनांगों का निरूपण किया है । मैं थोडे ही में समझा सकता था । क्या मैं निरा मूर्ख हूं ! दूसरी बात यों है कि यों तो स्वार्थिक प्रत्ययका कथन या कहीं कहीं " संश्व शद इस प्रकार उपनय वचन भी अतिरिक्त वचन होनेसे पराजय करानेके लिये समर्थ हो जावेंगे। तभी तो श्री अकलंक देवने अष्टशती में "त्रिलक्षणवचनसमर्थनं च असाधनांगवचनमपजयप्राप्तिरिति व्याहृतं " हेतुके त्रिकक्षणवचनका समर्थन करना और असाधनांगवचनसे पराजय प्राप्ति बतलाना यह बौद्धोंका निरूपण व्याघात दोषसे युक्त कहा है । इसका स्पष्टी करण अष्टसहस्री में किया है । " प्रतिज्ञातोर्थसिद्धौ स्याद्धेत्वादिवचनं वृथा । नान्यथा साधनागत्वं तस्या इति यथैव तत् ॥ ७६ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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