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________________ तत्वायचिन्तामणिः बौद्ध पुनः अपने उसी सिद्धान्तको जमानेके लिये अवधारण करते हैं कि पक्ष धर्मोपसंहाररूप उपनयका कहे विना यद्यपि सामर्थ्य से ज्ञान कर लिया जाता है। फिर भी किसीको पक्षमें वृत्तिपना नहीं होनेके कारण यदि हेतुके स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासपनेकी शंका हो जाय तो उस मसिद्धपमका व्यवच्छेद करना उपनय कथनका फळ विद्यमान है । इस कारण उस पक्षधर्मोपसंहारका कथन करना युक्त माना जा रहा है। देखिये " सर्व क्षणिक सत्वात " सभी पदार्थ क्षणिक हैं, सत्पना होनेसे, इस अनुमानमें जो जो सत् हैं, वे सभी क्षणिक हैं जैसे कि घडा, दीपकलिका, बिजली, आदिक । यों अन्वय दृष्टान्त दिखाते हुये शब्द भी सत्त्व हेतुवाला है। यह उपनय वाक्य कहा है। उपनय कथन करनेसे हेतुका पक्षमें ठहर जाना होनेके कारण स्वरूपसिद्धिका व्यवच्छेद हो जाता है । यों बौद्धोंके कहनेपर तो नैयायिकको सहारा देते हुये आचार्य कहते हैं कि तब तो भळे ही निगमन नामक पांचवें अवयवका यों ही विना कहे ज्ञान हो जाय, फिर भी प्रतित्रा, हेतु, उदाहरण, उपनय इन चार अवयवोंका एक ही साध्य विषयकी साधना रूप प्रयोजनको दिखलाना निगमनका फल है। यानी पहिले चारों ही अवयव अन्तमें सब निगमनमें गिरते हैं। जैसे कि पानी निपानमें जमा हो जाता है । या सूने खलिहानमें बार, युवा, वृद्ध कबूतर एक साथ गिरते हैं। "वृद्धा युवानः, शिशवः, कपोताः, खले यथामी युगपत्पतंति, तथैव सर्वे युगपत्पदार्थाः, परस्परेणान्वयिनो भवन्ति "। उसी प्रकार सबका ध्येय निगमनसिद्धि है । अतः उस निगमनका कथन करना भी युक्ति सहित ही है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं । उसको अवधान लगाकर सुनिये । तस्यासिद्धत्वविच्छिचिः फलं हेतोर्यथा तथा । निगमस्य प्रतिज्ञानाघेकार्थत्वोपदर्शनम् ॥ ७५॥ जिस प्रकार उस उपनयका फल हेतुके असिद्ध हेत्वाभासपनका विच्छेद करना है, उसी प्रकार निगमनका फल प्रतिज्ञा, हेतु आदि चार अवयवोंका एक प्रयोजनसहितपना दिखलाना है। अर्थात्-व्यर्थ पडते हुये भी उपनयको बौद्धोंने यदि सार्थक बनाया है तो चारों अवयवोंका एक उसी साध्यका निर्णय करना प्रयोजन निगमनका है । अतः पांचों अवयवोंका कथम बावश्यक है, अन्यथा निग्रह होगा। न हि प्रतिज्ञादीनामेकार्थत्वोपदर्शनमंतरेण संगतत्वमुपपद्यते भिन्नविषयप्रतिज्ञादिवत् । - देखो,प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदिकोंका एक ही अर्थपनको दिखलाये बिना उनकी परस्परमें संगति नहीं बनती है । जैसे कि मिन मिन साध्यको विषय करनेवाले प्रतिज्ञा, हेतु, भादिकी संगति नहीं बन पाती है । भावार्थ-" शरोऽनित्यः " शब्द अनित्य है, यह प्रतिज्ञा की जाय
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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