SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थश्वाकवार्तिके प्रतिज्ञाकी क्षति हो जानेसे दूसरे वादीका जय हो जाता है,तिस ही प्रकार शास्त्रों में भी प्रतिमाप्राप्त पदार्यको विषय करनेवाले वादमें अपनी प्रतिज्ञाकी हानि कर देनेसे पराजय और दूसरेकी जीत हो जाती है। द्विप्रकारस्ततो जल्पस्तत्त्वप्रातिभगोचरात् । नान्यभेदप्रतिष्ठानं प्रक्रियामात्रघोषणात् ॥ ४६८ ॥ तिस कारण पूर्वमें कही गयी " द्विप्रकारं जगी जल्पं तत्वप्रातिभगोचरम्, त्रिषष्टेर्वादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये " इस कारिकाके अनुसार तत्त्व और प्रतिभामें प्राप्त हो रहे पदार्थको विषय करनेवाला होनेसे जल्प नामका शास्त्रार्थ दो प्रकारका ही है । न्यारे न्यारे प्रकारों करके केवळ प्रकियाकी घोषणा कर देने मात्रसे अन्य भेदोंकी प्रतिष्ठा नहीं हो जाती है। अर्थात्-" यथोक्तोपपत्रश्वलजातिमिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जस्पः " यह नैयायिकोंका किया हुआ जल्पका कक्षण ठीक नहीं पडता है। तात्विक और प्रातिम दो ही प्रकारका जल्प यथार्थ है। सोऽयं जिगीषुबोधाय वादन्यायः सतां मतः । प्रकर्तव्यो ब्रुवाणेन नयवाक्यैर्यथोदितैः ॥ ४६८ ॥ अब श्रीविद्यानन्द आचार्य प्रारम्भ किये गये तत्वार्थाविगमप्रकरणका उपसंहार करते हैं कि यह उक्त प्रकारका कहा गया न्यायपूर्वक वाद तो जीतनेकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंके प्रबोधके लिये सज्जन पुरुषों के द्वारा मान्य हो चुका है । सर्वज्ञकी आम्नाय अनुसार यथायोग्य पूर्वमें कह दिये गये नयप्रतिपादक वाक्यों द्वारा कथन कर रहे विद्वान् करके यह जल्पस्वरूप शास्त्रार्थ भळे प्रकार करना चाहिये, तभी स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरण कर देनेसे श्री अकलंक महाराजके कथनानुसार जय व्यवस्था प्राप्त हो सकेगी। यहांतक श्री विद्यानन्द आचार्यने नय प्रतिपादक सूत्रका विवरण करते हुये नय और नय वाक्यों की प्रवृत्ति तथा तस्वार्थाधिगम भेद इन प्रकरणों की संगति जोड दी है। एवं प्रपंचेन प्रथमाध्यायं व्याख्याय संगृहमा । इस प्रकार परिपूर्ण विद्वत्तापूर्वक अधिक विस्तार करके प्रथम अध्यायका व्याख्यान कर इस प्रथम अध्यायमें कहे गये मूलतत्त्वोंका संग्रह करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य शिखरिणीछन्दको कह रहे हैं। समुद्दिष्टो मार्गस्त्रिवपुरभवत्वस्य नियमा-। द्विनिर्दिष्टा दृष्टिनिखिलविधिना ज्ञानममलम् । प्रमाणं संक्षेपाद्विविधनयसंपञ्च मुनिना । सुगृह्याद्येऽध्यायेऽधिगमनपथः स्वान्यविषयः ॥ ४७०॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy