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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नमस्करणीय आचार्योंके भी अभिवन्दनीय श्री उमास्वामी मुनि महाराजने इस प्रथम अध्यायमें सबसे पहिले संसाररहितपन यानी मोक्षका मार्ग नियमसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र, इन तीनस्वरूप शरीरको घारनेवाला भळे प्रकार कहा है । पश्चात् शब्दनिरुक्तिद्वारा अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं होने से दो प्रकार सम्पूर्ण मेदोंके साथ सम्यग्दर्शनका विशेष रूपसे निर्देश ( लक्षण ) किया है । उसके पीछे निर्दोष ज्ञानको प्रमाण कहते हुये सम्पूर्ण भेद प्रभेदोंके साथ संक्षेपसे सम्यग्ज्ञानका विधिपूर्वक निरूपण किया है। तथा उसके अनन्तर संक्षेपसे द्रव्यार्थ और पर्यायार्थ दो प्रकारकी नय सम्पत्तिका विस्तार से सात प्रकार प्ररूपण किया है । इस प्रकार आदिके अध्याय में रत्नत्रय और प्रमाण नयोंका भले प्रकार ग्रहण कर सूत्रण किया है । जगत् में समीचीन ज्ञप्ति करानेका मार्ग स्वयंको और उसी समय अन्यको विषय करनेवाला प्रमाण ज्ञान ही है । अथवा वन्धचरण श्री उमास्वामी महाराज द्वारा प्रतिपादित किया गया रत्नत्रय स्व और अन्य पुरुषों में इप्ति करानेका मार्गभूत होवे, इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्य आशीर्वादवचन या वस्तुनिर्देश आत्मक मंगलाचरण करते हैं । "आदौ मध्येऽवसाने च मंगळं भाषितं बुधैः । तज्जिनेन्द्र गुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये " इस नियमके अनुसार अन्तमें या मध्यमें मंगळाचारण किया जाता है । रत्नत्रय और प्रमाण मंगलस्वरूप हैं । इति प्रथमाध्यायस्य पंचममान्हिकं समाप्तम् ।। ५ ।
इस प्रकार पहिले अध्यायका श्री विद्यानन्द स्वामी द्वारा निर्माण किया गया पांचवा आन्हिक ( प्रकरणसमुदाय ) समाप्त हुआ ।
इस प्रकरणका सारांश |
इस तत्रार्थाधिगम के प्रकरणोंकी सूची संक्षेपसे इस प्रकार है कि नयोंका व्याख्यान करते हुये विद्वानोंके लिये नय वाक्यकी प्रवृत्तिको समझाकर अधिगमके उपायभूत प्रमाण नयोंका व्याख्यान पूर्व सूत्रों में कर दिया गया था। यहां तत्वोंका यथार्थनिर्णय करानेके लिये दुर्ग ( किला के ) समान विशेष कथन किया है। ज्ञान आत्मक प्रमाण और नय तो अपने लिये होनेवाले तत्त्वार्थाधिगमके उपयोगी हैं। तथा शद्ब आत्मक हो रहे प्रमाण और नय तो दूसरोंको प्रबोध करानेके लिये उपयोगी हैं । रागद्वेषरहित वीतराग पुरुषों में जो बच्चों द्वारा परार्थाधिगम कराया जाता है, वह संवाद माना जाता है। और जो परस्पर जीतने की इच्छा रखनेवालों में परार्थ अधिगम प्रवर्तता है, वह वाद कहा जाता है । सम्वादमें चतुरंगी आवश्यकता नहीं है। किन्तु बादमें वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, इन चार arthi aataar पड जाती है। श्री विद्यानन्द आचार्यने उक्त चतुरंगके लक्षणोंका और आवश्यकता के बीजका निरूपण कर नैयायिकों द्वारा माने गये वीतरागों में होनेवाले वादका प्रत्याख्यान क्रिया है । नैयायिकों के अभीष्ट हो रहे बादके कक्षणका विचार कर अपनी ओर कुछ विशेषणों को
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