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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः यस्तूक्तः प्रातिभो वादः संप्रातिभपरीक्षणः । निग्रहस्तत्र विज्ञेयः स्वप्रतिज्ञाव्यतिक्रमः॥४६३ ॥ प्रतिभासम्बन्धी चातुर्यकी भले प्रकार परीक्षणा करनेवाला तो जो वाद प्रातिम कहा गया है। उस प्रतिभागोचर वादमें अपनी की गयी प्रतिज्ञाका उल्लंघन कर देना निग्रह हुआ समझ लेना चाहिये। यथा पद्यं मया वाच्यमाप्रस्तुतविनिश्चयात् । सालंकारं तथा गद्यमस्खलद्रूपमित्यपि ॥ ४६४ ॥ पंचावयववाक्यं वा त्रिरूपं वान्यथापि वा। निर्दोषमिति वा संधास्थलभेदं मयोद्यते ॥ ४६५॥ यथा संगरहान्यादिनिग्रहस्थानतोप्यसौ । छलोक्त्या जातिवाच्यत्वात्तथा संधाव्यतिक्रमा ॥ ४६६ ॥ यथा द्यूतविशेषादौ स्वप्रतिज्ञाक्षतेर्जयः। लोके तथैव शास्त्रेषु वादे प्रातिभगोचरे ॥ ४६७॥ प्रातिभ शास्त्रार्थके पहिले यह प्रतिज्ञा कर ली जाती है कि जिस प्रकारका पद्य, इन्द्रवत्रा, उपेन्द्रवजा शिखरिणी आदि छन्द प्रस्ताव प्राप्त अर्थका विशेष निश्चय होनेतक मुझ करके कहने योग्य हैं, उसी प्रकार अलंकारसहित छन्द तुमको भी कहने होंगे । तथा जिस प्रकार में अस्वलित स्वरूप धारावाही रूपसे ध्वनि, लक्षणा, व्यंजना, रस, रीति, अलंकार आदिसे युक्त हो रहे गयको कहूंगा,इसी प्रकार तुमको भी वैसा गध कहना पडेगा । अथवा प्रतिज्ञा,हेतु,उदाहरण,उपनय, निगमन, इन पांच अवयव युक्त वाक्योंको में कहूंगा, वैसे ही तुमको भी अनुमानवाक्य कहने पडेंगे अथवा पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपवाळे हेतुके वाक्यको जैसे मैं कई, उसी प्रकार तुमको भी वैसा हेतु कहना चाहिये अथवा जैसे दूसरे प्रकारोंसे दोषरहित प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, स्वरूप वाक्य मुझ करके कहे जाय, उसी प्रकार प्रतिज्ञावाक्य स्थळके भेदको लिये हुये निर्दोष वाक्य तुमको कहने पडेंगे । जिस प्रकार कि प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंसे भी वह निग्रह माना जाता है, अथका छळ पूर्वक कथन करनेसे या जातिद्वारा वाच्यता प्राप्त हो जानेसे निग्रह प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अपनी की गयी प्रतिज्ञाका व्यतिक्रमण कर देनेसे भी निग्रह हो जावेगा । जिस प्रकार कि लोकमें छूतविशेष ( जूजा ) फाटिका, सदा आदिमें अपनी ठहरी हुई
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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