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तस्वार्थलोकवार्तिके
दश, सौ, सहस्त्र या लक्ष इतने पक्ष हैं, इत्यादिक रूपसे उन पक्षोंका यह नियत परिमाण करना अयुक्त ही है । क्योंकि संख्याका परिमाण करनेके नियमकी असिद्धि है। अतः उसी अवसरपर प्रकरण प्राप्त हो रहे एक ही पक्षकी सिद्धि कर देने पर्यन्त तात्विक शास्त्रार्थ होता है । " स्वपक्षसिद्धिपर्यन्ता शास्त्रीयार्थविचारणा" कहा गया था। इसमें " तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलंकैः कथितो जयः, स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः " यह जयपराजयन्यवस्थाका अकलंक सिद्धान्त निर्णीत किया जा चुका है।
एवं तावत्चाविको वादः स्वाभिप्रेतपक्षसिद्धिपर्यंतभावावस्थितः पक्षेयत्तायाः कर्तु मशक्तेनियमानुपपत्तितश्च न सकळपक्षसिद्धिपर्यतः कस्यचिज्जयोः व्यवस्थितः ।
जिस प्रकार विवादप्राप्त वस्तुको प्राप्तितक लौकिक वाद ( झगडा ) प्रवर्तता है, इसी प्रकार तस्वनिर्णयसम्बन्धी वाद भी तो अपने अभीष्ट पक्षकी सिद्धिका पर्यन्त होनेतक व्यवस्थित हो रहा है । कोई नियम बना हुआ नहीं होनेसे पक्षोंकी इयत्ताका निर्णय नहीं किया जा सकता है, शब्द नित्य है ! या अनित्य है ! व्यापक है, या अव्यापक ! एक है ? या अनेक है ! शब्द बाकाश का गुण है ! या पौद्गलिक है ! जलकी लहरोंके समान चारों ओर फैलता है ! अथवा क्या कदम्बपुष्प या धत्तूर पुष्पके समान शब्दका प्रसार होता है ! । अनादिकालीन योग्यता द्वारा अर्थ प्रतिपादक है ! अथवा क्या सादिकालीन योग्यतावश वाच्यार्थप्रतिपादक है ! इत्यादिक विवादापन्न अनेक पक्ष सम्भव रहे हैं। इनमेंसे विचारणीय प्रकरण प्राप्त किसी एक पक्षकी सिद्धि हो जाने पर्यंत ही किसी विद्वान् का जय और अन्य पुरुषका पराजय व्यवस्थित कर दिया जाता है । सम्पूर्ण पक्षोंकी सिद्धि कर चुके तहांतक किसीका जय होय, यह व्यवस्था नहीं की गयी है। यहांतक महापण्डित श्रीदत्तके " जल्पनिर्णय " नामक ग्रन्थ अनुसार और श्री अकलंकदेव महाराजके सिद्धान्त अनुसार श्री विद्यानन्द आचार्य अभिमानप्रयुक्त हुये तात्त्विक वादके प्रकरणका उपसंहार कर चुके हैं।
सांपतं प्रातिभे वादे निग्रहव्यवस्थां दर्शयति ।
अब जिगीषु वादीप्रतिवादियोंमें प्रवर्त रहे प्रतिभाबुद्धि सम्बन्धी वादमें होनेवाली निग्रहम्यवस्थाको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं । प्रतिभाद्वारा जान लिये गये पदार्थोंमें होनेवाला शास्त्रार्थ " प्रातिभवाद " होता है । साहित्यवालोंने तो प्रतिभाका लक्षण यों किया है कि " प्रसन्नपदनव्यार्थयुक्त्युबोधविधायिनी, स्फुरन्ती सत्कवेर्बुदिः प्रतिभा सर्वतोमुखी " प्रसादगुणयुक्त पदोंद्वारा नवीन अर्थोकी योजनाके प्रबोधका विधान करानेवाली श्रेष्ठ कविकी बुद्धि प्रतिभा है। उस प्रतिभाका प्राकट्य दिखलानेके लिये हुये शास्त्रार्थमें निग्रहकी व्यवस्था इस प्रकार है, सो सुनिये ।