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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके जाता है। यह जैनोंकी व्यवस्था है । भावार्थ-वैशेषिकोंने अनेकान्तिक हेत्वामासके साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी, ये तीन भेद किये हैं। जो हेतु सपक्ष और विपक्षमें वर्त जाता है, वह साधारण है तथा जो सपक्ष और विपक्ष दोनोंसे व्यावृत्त है, वह असाधारण हेत्वाभास है। जिसका अमाव नहीं हो सके ऐसे केवलान्वयी पदार्थको पक्ष बनाकर जो हेतु दिया जाता है, वह अनुपसंहारी है। प्रकरणमें यह कहना है कि असाधारण नामका हेत्वाभास कोई नहीं है । विपक्षमें हेतुका नहीं रहना तो अच्छा ही है । हां, सपक्षमें यदि हेतु नहीं रहता है तो कोई क्षति नहीं है, मन्वयदृष्टान्तके विना भी सद्धेतु हो सकते हैं । तभी तो नव्य नैयायिकोंने इसको हेवामास नहीं माना है । इस कथन करके सम्पूर्ण वस्तुओंमें परिणामीपनको साध्य करनेपर दिये गये प्रमेयत्व, सख आदिक हेतु भी कोई अनुरसंहारी हेत्वाभास नहीं हैं । उनका भी समीचीन हेतु या बनेकान्तिक हेस्वाभासमें अन्तर्भाव हो जाता है । यह निणीतरूपसे व्याख्यान कर दिया गया समझ बेना चाहिये । प्रन्थकी आदिमें कही गयी सातवीं वार्तिकके भाष्यमें " असाधारण" का विचार करा दिया है। साध्यके साथ अविनामाव सम्बन्ध हो जाना ही सद्धेतुका प्राण है। पक्षत्रितयहानिस्तु यस्यानैकान्तिको मतः। केवलव्यतिरेकादिस्तस्यानैकान्तिकः कथं ॥ ५७ ॥ व्यक्तात्मनां हि भेदानां परिमाणादिसाधनम् । एककारणपूर्वत्वे केवलव्यतिरेकि वः ॥ ५८ ॥ कारणत्रयपूर्वत्वात्कार्येणानन्वयागते । पुरुषैर्व्यभिचारीष्टं प्रधानपुरुषैरपि ॥ ५९॥ . जिस दार्शनिकके यहां पक्ष, सपक्ष, विपक्ष इन तीनों ही पक्षों में हेतुकी हानि यानी नहीं वर्तना अनैकान्तिकका लक्षण माना गया है, उस दार्शनिकके यहां केवळव्यतिरेक या फेवकान्वयको धारनेवाले कोई कोई हेतु अनैकान्तिक कैसे हो सकेंगे ! कपिल मत अनुयायियोंने " भेदानां परिमाणात् समन्वयाञ्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्पस्य " इस कारिका द्वारा महत्तव, महंकार, पांच तन्मात्रायें, ग्यारह इन्द्रियां और पांचभूत इन व्यक्तखरूप पदायोंका प्रकृतिस्वरूप एककारणसे अभिव्यज्यपना साधनेपर दिये गये भेदानां परिमाण, भेदानां समन्वय, बादिक हेतु कहे हैं । अर्थात्-महत् आदिक व्यक्त ( पक्ष ) एक ही कारणको पूर्ववत्ती मानकर प्रकट हुये है, ( साध्य ) परिमितपना होनेसे ( हेतु ) । यहां हेतुका समवायि, असमाथि, निमित, इम सीन मरणोंकरके पूर्वकपना होनेसे कार्य के साथ अन्वयरहितपना प्राप्त हो जानेपर वे हेतु
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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