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________________ तवायचिन्तामणिः १५१ नहीं है । कारण कि अनादिकालसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंका समुदायस्वरूप कार्मण शरीरके साथ संसारी आमाका सम्बन्ध हो जानेकी सिद्धि हो रही है । अतः उस जगत्को बनानेवाले बुद्धिमान् के अपने शरीर के साध्य करनेपर उस शरीरसे ही व्यभिचार दोष प्राप्त हो जाता है। अर्थात् बुद्धिमा• नूने जिस शरीरसे जगत्को बनाया वह शरीर बुद्धिमान्का बनाया हुआ नहीं है, किन्तु कृतक है । अतः हेतुका प्रयोक्ता नैयायिक न्याय या तर्कको जाननेवाला नहीं है। वह कुतार्किक समझने योग्य है । उसका हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है । अन्य प्रकारोंसे तिस प्रकार बुद्धिमान् पूर्वक पने के सिद्ध हो जाने की सम्भावना नहीं है । अथवा विपक्ष में हेतुके वर्तनेकी सम्भावना हो जाने से वह विरुद्ध हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास समझना चाहिये । अन्यथा विपक्ष में वृत्ति नहीं होनेपर तिस प्रकार अनेकान्तिक नहीं है। पक्षमें वृत्तिपन की विधि के समान विपक्ष में वर्तने के संशयको धारनेवाले सभी हेतु साधारणपनेकरके व्यवस्थित हैं । साधारण, व्यभिचार, अनैकान्तिक, इन शब्दोंका अर्थ एक ही है । शद्वत्व श्रावणत्वादि शद्वादौ परिणामिनि । साध्ये हेतुस्ततो वृत्तेः पक्ष एव सुनिश्चितः ॥ ५३ ॥ संशीत्यालिङ्गिताङ्गस्तु यः सपक्षविपक्षयोः । पक्षे स वर्तमानः स्यादनैकान्तिकलक्षणः ॥ ५४ ॥ तेनासाधारणो नान्यो हेत्वाभासस्ततोऽस्ति नः । तस्यानैकान्तिके सम्यग्धेतौ वान्तर्गतिः स्थितिः ॥ ५५ ॥ प्रमेयत्वादिरेतेन सर्वस्मिन्परिणामिनि । साध्ये वस्तुनि निर्णीतो व्याख्यातः प्रतिपद्यतां ॥ ५६ ॥ शद्व आदिक पक्षमें परिणामीपन साध्य करनेपर दिये गये शद्वत्व, श्रवणइन्द्रिय द्वारा प्राह्यत्व, भाषावर्गणानिष्पाद्यत्व आदिक हेतु यदि पक्षमें ही साध्यके साथ अविनामावी होकर वृत्तिपनेसे म प्रकार निश्चित हैं, तब तो वे सब सद्धेतु ही हैं। हां, जो सपक्ष और विपक्ष में वर्तनेके संशय करके जिन हेतु के शरीरका आलिंगन कर लिया गया है, वह हेतु यदि पक्ष में वर्तमान होगा तो अनैकान्तिकत्वाभासके कक्षणसे युक्त समझा जावेगा । तिस कारण हम स्याद्वादियोंके यहाँ साधारण या अनैकान्तिकसे भिन्न कोई दूसरा असाधारण नामका हेत्वाभास नहीं माना गया है। वैशेषिकों के द्वारा माने गये उस असाधारण हेत्वाभासका अन्तर्भाव अनैकान्तिकमें अथवा समीचीन देतुमें हो
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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