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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके वादीका निग्रहस्थान हो जावेगा । अथवा पूर्वकथित दृष्टान्त आदिकी योग्य सामर्थ्य होनेपर पुनः वादी द्वारा प्रतिदृष्टान्त, प्रत्युपनय आदिक उच्चारण करना व्यर्थ है, यह भी कहा जा सकता है। इसमें नैयायिक यदि आक्षेप करेंगे तो हम भी उनके हेत्वान्तरपर आक्षेप उठा देंगे तथा देवन्तर निग्रहस्थानकी रक्षा करनेके लिये नैयायिक जो समाधान करेंगे तो दृष्टान्तान्तर, उपनयान्तर, बादि न्यारे निग्रहस्थानोंका आपादन करनेके लिये हम भी वही समाधान कर देवेंगे । उनके और हमारे आक्षेप समाधानोंकी समानता है। ___ यदप्युपादेशि प्रकृतादादपतिसंबद्धार्थमर्थातरमभ्युपगमार्थासंगतत्वान्निग्रहस्थानमिति तदपि विचारयति । और भी जो न्यायदर्शनमें गौतम ऋषिने छटे " अर्थान्तर " निग्रहस्थानका लक्षण करते हुये उपदेश दिया था कि प्रकरण उपयोगी अर्थसे असम्बद्ध अर्थका कथन करना अर्थान्तर नामका निग्रहस्थान है । अर्थात-" प्रासादात् प्रेक्षते " के समान ल्यप् प्रत्ययका लोप होनेपर यहां प्रकृतात् यह पंचमी विभक्तिवाला पद है । अतः प्रकरणप्राप्त अर्थकी उपेक्षा कर प्रकृतमें नहीं बाकांक्षा किये गये अर्थ कथन करना अर्थान्तर है । यह स्वीकार किये गये अर्थकी असंगति हो जानेसे निग्रहस्थान माना गया है । इस प्रकार न्यायदर्शनकर्ताका उपदेश है। अब श्री विद्यानन्द आचार्य उसका भी वार्तिकों द्वारा विचार करते हैं। प्रतिसंबंधशून्यानामर्थानामभिभाषणम् । यत्पुनः प्रकृतादादातरसमाश्रितम् ॥ १९२ ॥ कचिकिंचिदपि न्यस्य हेतुं तच्छद्धसाधने । पदादिव्याकृतिं कुर्याद्यथानेकप्रकारतः ॥ १९३ ॥ जो फिर प्रकरणप्राप्त अर्थसे प्रतिकूल अनुपयोगी अन्य अर्थका आश्रय रखता हुआ निरूपण करना है, जो कि सन्मुख स्थित विद्वानोंके प्रति सम्बन्धसे शून्य हो रहे अर्थाका प्ररूपण है, वह अर्थान्तर है । जैसे कि कहीं भी पक्षमें किसी भी साध्यको स्थापित कर वादी द्वारा विवक्षित हेतुको कहा गया, ऐसी दशामें वादी उस हेतु शब्दके सिद्ध करनेमें पद, कारक, धात्वर्थ, इत्यादिकका अनेक प्रकारोंसे व्युत्पादन करने लग जाय कि स्वादि गणकी " हि गतौ बुद्वौ च " धातुसे तुन् प्रत्यय करनेपर कृदन्त हेतु शब्द निष्पन्न होता है। सुबन्त, तिङन्त, यों द्विविध पद होते हैं। उपसर्ग तो क्रियाके अर्थके द्योतक होते हैं । अकर्मक, सकर्मक यों दो प्रकारकी धातुऐं है, इत्यादि कई प्रकागेसे अप्रकृत बातोंके निरूपण करनेवाले वादीका निरर्थक निग्रहस्थान हो आता है। क्योंकि
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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