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________________ तत्त्वार्थचेन्तामणिः ૨૮૦ होना सम्भव नहीं है । हां, यदि वक्ता वादी साध्यके अनुपयोगी शह्नोंका यों ही केवल अनर्थक बचन कर रहा है, ऐसी दशामें उन दोनों समाजन प्रतिवादियोंको वादीके कथित अर्थका ज्ञान नहीं होना तो यह अविज्ञातार्थ नहीं है । यानी परिषद् और प्रतिवादीके नहीं समझनेपर व्यर्थ वचन बोलनेवाले 1 वादी के ऊपर तो अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान नहीं उठाना चाहिये। जैसे कि जब ग ड द श आदि वर्णोंके अनुक्रमका निर्देश कर व्यर्थ कथन करनेवाले वादीके ऊपर अविज्ञातार्थ निग्रह नहीं उठाया जाता है । हां, सभ्यजनों के सन्मुख प्रतिवादी द्वारा स्वपक्षकी सिद्धि हो जानेपर तो यों ही असंगत प्रलाप करने वाळे वादी ऊपर भले ही निरर्थक निग्रहस्थानका आरोप कर दो, अविज्ञातार्थको न्यारा निग्रहस्थान मानने की आवश्यकता नहीं । ततो नेदमविज्ञातार्थं निकाद्भिद्यते । तिस कारण से यह अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान पूर्वमें मान लिये गये निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न होता हुआ नहीं सिद्ध होपाता है । नापार्थकमित्याह । तथा नौवां निग्रहस्थान " अपार्थक " भी निरर्थकसे भिन्न नहीं सिद्ध हो सकता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं । प्रतिसंबंधहीनानां शद्वानामभिभाषणं । पौर्वापर्येण योगस्य तत्राभावादपार्थकम् ॥ २०९ ॥ दाडिमानि दशेत्यादिशद्ववत्परिकीर्तनम् । ते निरर्थकतो भिन्नं न युक्त्या व्यवतिष्ठते ॥ २९० ॥ " पौर्वापर्य्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् " शब्दों के पूर्व अपरपने करके संगतिरूप योगका वहां अभाव हो जानेसे शाद्वबोधके जनक आसक्ति, योग्यता, आकांक्षा ज्ञान आदिके अभाव हो जानेके कारण सम्बन्धहीन शब्दोंका लम्बा चौडा कथन करना अपार्थक निग्रहस्थान है । जैसे कि दश अनार हैं, छह पूा है, बकरीका चमडा है, बम्बई नगर बहुत बडा है, माष वातुल होता है, इत्यादिक शद्व बोलने के समान असंगत शब्दोंका उच्चारण वादीका अपार्थक निग्रहस्थान हो जाना तुम नैयायिकों के यहां कहा गया है । युक्तिद्वारा विचार करनेपर वह अपार्थक तो निरर्थक निप्रइस्थान से पृथक्भूत व्यवस्थित नहीं हो पाता है । क्योंकि निरर्थक में भी वर्णरूपी शब्द निरर्थक हैं । और यहां भी असंगतपद निरर्थक हैं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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