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________________ तत्वार्थ छांक वार्तिके नैरर्थक्यं हि वर्णानां यथा तद्वत्पदादिषु । नाभियेतान्यथा वाक्यनैरर्थक्यं ततोपरम् ॥ २११ ॥ ३८८ जिस ही प्रकार निरर्थक निग्रहस्थानमें ज ब ग ड आदि वर्णोंका निरर्थकपना है, उसीके समान यहां पद आदिमें भी वर्णोंके समुदाय पदोंका साध्य उपयोगी अर्थसे रहितपना है । अतः निरर्थक निग्रहस्थानसे अपार्थक निग्रहस्थान भिन्न नहीं माना जावेगा । अन्यथा यानी वर्णोंकी निरर्थकता से पदोंकी निरर्थकताको यदि न्यारा निग्रहस्थान माना जायेगा तब तो उनसे न्यारा वाक्योंका निरर्थकपना स्वरूप वाक्यनैरर्थक्य नामक निग्रहस्थान भी पृथकू मानना पडेगा । जो कि तुम नैयायिकोंने न्यारा माना नहीं है । " न हि परस्परमसंगतानि पदान्येव न पुनर्वाक्यानीति शक्यं वक्तुं तेषामपि पौर्वापर्येण प्रयुज्यमानानां बहुलमुपलम्भात् । " शंखः कदल्यां कदली च भेर्यो तस्यां च भेर्या सुमहद्विमानं । तच्छंखभेरी कदली विमानमुन्मत्तगंगप्रतिमं बभूव ॥ इत्यादिवत् । यदि पुनः पदनैरर्थक्यमेव वाक्यनैरर्थक्यं पदसमुदायत्वाद्वाक्यस्येति मतिस्तदा वर्णनैरर्थक्यमेव पदनैरर्थक्यमस्तु वर्णसमुदायत्वात्पदस्येति मन्यतां । " परस्पर में संगतिको नहीं रखनेवाले पद ही होते हैं । किन्तु फिर परस्पर में असम्बद्ध हो रहे कोई वाक्य तो नहीं हैं । तुम नैयायिक यों नियम नहीं कर सकते हो। क्योंकि पूर्व अपर सम्बन्ध करके नहीं प्रयोग किये जारहे उन वाक्योंका भी बहुत स्थानोंपर उपलम्भ हो रहा है। देखिये, शंख harमें है और नगाडे केला है । उस नगाडेमें अच्छा लम्बा चौडा विमान है । वे शंख, नगाडे, छा, और विमान जिस देशमें गंगा उन्मत्त है, उसके समान हो गये । तथा जरद्गवः कम्बलपाणिपादः, द्वारि स्थितो गायति मंगलानि तं ब्राह्मणी पृच्छति पुत्रकामा राजन्नुखायां लशुनस्य कोऽर्थः " हाथ पेरोंमें कम्बलको बांधे हुये बुड्ढा बैल द्वारपर खडा है । मंगल गीतोंको गा रहा है । पुत्रप्राप्तिकी इच्छा रखनेवाली ब्राह्मणी उससे पूंछती है कि हे राजन् ! कसेंडीमें लहसनका क्या प्रयोजन ! इत्यादिक निरर्थक वाक्योंका अनेक प्रकारोंसे श्रवण हो रहा है । यदि फिर आप नैयायिक यों कहे कि पदों का निरर्थकपना ही तो वाक्योंका निरर्थकपना है । क्योंकि पदोंका समुदाय ही तो वाक्य है । अतः अपार्थकसे भिन्न " वाक्यनिरर्थक " नामका निग्रहस्थानको न्यारा माननेकी हमें आवश्यकता नहीं । इस प्रकार नैयायिकोंका मन्तव्य होनेपर तो हम कहेंगे कि वर्णोंका निरर्थकपना ही पदका कपना हो जाओ। क्योंकि वर्णाका समुदाय ही तो पद है । अतः अपार्थकको भी निरर्थकसे मित्र न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये |
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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