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________________ तत्त्वार्यशोकवार्तिके की प्राप्तिका प्रसंग हो जावेगा । "प्रसिद्धावयववाक्यं स्वेष्टार्थस्य हि साधकं, साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलं "। जहां गूढ पदोंको पत्रमें लिखकर शास्त्रार्थ किया जाता है, वहां गूढ कथन करनेसे प्रकृष्ट विद्वान्का निग्रह तो नहीं हो जाता है। पत्रवाक्यं स्वयं वादी व्याचष्टेन्यैरनिश्चितम् । यथा तथैव व्याचष्टां गूढोपन्यासमात्मनः ॥ २०५॥ अव्याख्याने तु तस्यास्तु जयाभावो न निग्रहः । परस्य पक्षसंसिद्धयभावादेतावता ध्रुवम् ॥ २०६ ॥ यदि कोई न्यायवादी यों कहे कि अन्य विद्वानों करके नहीं निश्चित किये गये पत्रवाक्यका जिस प्रकार वादी स्वयं व्याख्यान करता है। जैसे कि " उभान्तवाक् " का अर्थ विश्व किया जाता है। सर्व, विश्व, उम, उभय आदि सर्वादि गणमें विश्वके अन्तमें उभ शब्दका निर्देश है । एवं सैन्यलडभाक् इत्यादिक गूढपदोंका व्याख्यान वादी कर देता है । अतः सभाजन और प्रतिवादीको अर्थका विज्ञान हो जाता है । इस पर आचार्य कहते हैं कि अच्छी बात है कि वह वादी तिस ही प्रकार अपने उच्चारण किये गये गूढकथनका भी व्याख्यान कर देवे । हां, यदि वादी कषाय वश अपने गूढ शद्रोंका व्याख्यान नहीं करता है, तो उसको जय प्राप्त करने का अभाव हो जायगा। किन्तु इतनेसे ही कठिन संस्कृत वाणीको बोलनेवाळे वादीका कदचिद् भी अविज्ञानी पुरुषों करके निग्रहस्थान तो नहीं हो सकता है । क्योंकि दूसरे प्रतिवादीके पक्षकी समीचीन रूपसे सिद्धि होनेका अभाव है । यह निश्चित मार्ग है।। द्रुतोचारादितस्त्वेतौ कथंचिदवगच्छतौ । सिद्धांतद्वयतत्त्वज्ञैस्ततो नाज्ञानसंभवः ।। २०७ ॥ . वक्तुः प्रलापमात्रे तु तयोरनवबोधनम् । नाविज्ञातार्थमेतत्स्याद्वर्णानुक्रमवादवत् ॥ २०८ ॥ द्वितीय विकल्प अनुसार वादीके शीघ्र शीघ्र उच्चारण करना, अथवा श ष स एवं ड क या त ट आदिका विवेक नहीं कर अव्यक्त कहना, खांसी श्वास चलना, दांतोंमें त्रुटि होना, ऐसे रोगोंके घश होकर अप्रकट बोला जाना आदि कारणोंसे तो ये प्रतिवादी और सभाजन कुछ न कुछ थोडा बहुत तो अवश्य समझ नावेंगे । क्योंकि मध्यस्थ या समाजन तो वादी और प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्त किये गये तत्त्वोंको समझनेवाले हैं । तिस कारण वादीके अभिप्रेत अर्थका इनको बान
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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