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________________ तत्वार्याचन्तामणिः ३८५ भी गूढ पदप्रयोग करनेसे, या शीघ्र बोलनेसे, उसका अज्ञान समझा जाता है । इस प्रकरणमें उस अविज्ञातार्थका श्री विद्यानन्द स्वामी विचार चलाते हैं । परिषत्पतिवादिभ्यां त्रिरुक्तमपि वादिना । अविज्ञातमविज्ञाताथं तदुक्तं जडात्मभिः ॥ २०१॥ यदा मंदमती तावत्परिषत्पतिवादिनौ ।। तदा सत्यगिरोपेते निग्रहस्थानमापयेत् ॥ २०२ ॥ ज्ञानसे सर्वथा भिन्न अतएव जड हो रही आत्माको माननेवाले नैयायिकोने जो अविज्ञालार्थ का लक्षण वह कहा था कि वादीके द्वारा तीन वार कहे हुये को भी यदि सभाजन और प्रतिवादियोंने नहीं समझा है तो इससे वादीका "अविज्ञातार्थ" निग्रहस्थान है । इसी प्रकार प्रतिवादीके तीन वार कहे हुये को भी यदि वादी और सभ्य जनोंने नहीं जान पाया तो प्रतिवादीका भी अविज्ञायात ( अज्ञान ) निग्रहस्थान है। यहां सबसे पहिले हमको यह कहना है कि जब प्रतिवादी और समाजन मन्दबुद्धिवाले हैं, तब तो समीचीन वाणीसे सहित हो रहे वादीमें भी निग्रहस्थान करा देवेंगे। यानी प्रकाण्ड विद्वान्को पोंगा लोग निग्रहस्थानमें गिरा देवेंगे । यों तो ग्रामीण ठाकुर या गंवारों में चार वेद और चार वेदिनी इस प्रकार आठ वेदोंको वखाननेवाला प्रामीण धूर्त पण्डित भी वेदोंको चार कहनेवाले उद्भट विद्वान्को जीतकर उसकी पुस्तके और यश लेता हुआ कृती हो जायगा । वीस वर्षतक अनेक ग्रन्थोंको पढ चुका, महा विद्वान निगृहीत कर दिया जावेगा। यदा तु तो महाप्राज्ञौ तदा गूढाभिधानतः। द्रुतोचारादितो वा स्यात्तयोरनवबोधनम् ॥ २०३ ॥ प्राग्विकल्पे कथं युक्तं तस्य निग्रहणं सताम् । पत्रवाक्यप्रयोगेपि वक्तुस्तदनुषंगतः ॥ २०४ ॥ और जब वे परिषद् और प्रतिवादी बडे भारी विचारशील विद्वान् हैं, तब तो हम पंछते हैं कि उन विचक्षणों को वादीके तीन वार कहें हुये का भी अविज्ञान क्यों होयगा ! क्या बादीने गूढपदोंका प्रयोग किया था ! अथवा क्या वादी शीघ्र बड बड कह जाता है, खांसते हुये अलता है, इत्यादि कारणोंसे वे नहीं समझ पाये ? बताओ ! पूर्वका विकल्प स्वीकार करनेपर तो सज्जन पुरुषों के सन्मुख उस वादीका निग्रहस्थान कर देना भला कैसे युक्त हो सकता है ! अर्थात्-नहीं। क्योंकि यों निग्रहस्थाम कर देनेपर तो पत्रवाक्यके प्रयोगमें भी वक्ताको उस अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान 49
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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