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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके ૨૮૪ इसी बात को स्पष्टकर कहते हैं कि निरर्थक शब्दोंको कहनेवाला मनुष्य साध्य और साधनको नहीं जानता है । जो साध्यके साधक नहीं है, उन व्यर्थ शब्दों को पकड बैठा है । इस कारण वह निगृहीत हो जाता है । किन्तु बात यह है कि अपने पक्षको अच्छे प्रकार साध रहे दूसरे विद्वान् करके उसका निग्रह किया जावेगा । निरर्थक शद्ववादीका निग्रह नहीं हो सकेगा। क्योंकि न्याय करनेसे नीति मार्ग यही बताता है कि अपने पक्षको साधकर दूसरेका जय कर सकते हो । निर्दोष दो आंखोंवाला पुरुष भले ही दोष दृष्टिसे कानेको काणा कह दे, किन्तु काणा पुरुष तो दूसरे एकाक्षको निन्दापूर्वक काणा नहीं कह सकता है । अन्य प्रकारोंसे उस विरोध पडता है । , यदप्युक्तं, “ परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थ भाष्ये चोदाहृतमसामर्थ्ये सम्बरणान्निग्रहस्थानं ससामर्थ्य चाज्ञानमिति, तदिह विचार्यते । "" ra श्री विद्यानन्द स्वामी " अविज्ञातार्थ " निग्रहस्थानका विचार करते हैं । मी अविज्ञातार्थका लक्षण न्यायदर्शनमें गौतमऋषिने यों कह दिया है कि वादी द्वारा तीन वार कहे हुये को भी यदि सभाजन और प्रतिवादी करके नहीं विज्ञात किया जाय तो वादीका अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान हो जाता है । भावार्थ - त्रादीने एक बार पूर्व पक्ष कहा, किन्तु परिषद्के मनुष्य और प्रतिवादीने उसको समझा नहीं, पुनः वादीने दुबारा कहा, फिर भी दोनोंने नहीं समझा, पुनरपि वादी तिवारा कहा, तो भी सभ्यजन और प्रतिवादीने उसको नहीं समझ पाया, तो वादीका "अविज्ञातार्थ " निग्रहस्थान हो जायगा। क्योंकि वादी धोका दे रहा है कि सभ्य और प्रतिवादीको अज्ञान करा देनेसे मेरा जय हो जायेगा । न्यायभाष्य में यों ही उदाहरण देकर कहा है । " यद्वाक्यं परिषदा प्रतिवादिना च त्रिरमिहितमपि न विज्ञायते श्लिष्टशद्वमप्रतीतप्रयोगमतिद्रुतोच्चारितमित्येवमादिना कारणेन तदविज्ञातमविज्ञातार्थमसामर्थ्यसंवरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानम् जो वादीका वाक्य तीन बार कहा जा चुका भी यदि प्रतिवादी और सभ्य पुरुषों करके नहीं जाना जा रहा है, वहां बादीद्वारा श्लेषयुक्त शद्रका प्रयोग किया गया दीखता है, या जिनकी प्रतीति नहीं हो सके, ऐसे वाक्योंका उच्चारण हो रहा है, जैसे कि शब्द के नित्यत्वकी सिद्धिका प्रकरण है वहां " तलकीनमधुगविमलं धूमसळागा विचोरभयमेरु, तटहरखझसा होंति हु माणुसपज्जतसंखंका ॥ सुहमणिवातेआभू वाते आणि पदिट्ठिदं इदरं । वितिचपमादिलाणं एयाराणं तिसेटीय | इसु हीणं विक्खमं चड गुणिदिसुणाइदेदुजीवकदी, बाणकदिं छहिं गुणिदे तच्छजुदे की होदि अथवा अत्यन्त शीघ्र शीघ्र उच्चारण करना, जय लूटनेके लिये गूढ अर्थवाले पदों का प्रयोग करना, इत्यादि कारणोंकरके अपनी असामर्थ्यको छिपा देनेका कुत्सित प्रयत्न करनेसे वादीका अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान हो जाता है । और यदि वादी साध्यको साधने में " समर्थ है तो
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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