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तत्वार्थ लोकवार्तिके
यदि भाष्यकारका यह अभिप्राय होय कि साक्षात् रूपसे भले ही यह दृष्टान्तहानि होय किन्तु परम्परासे प्रतिज्ञाका भी त्याग हो चुका है । अतः यह प्रतिज्ञाहानि कही जा सकती है । इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं कि यों तो हेतु और उपनयकी हानि भी कही जानी चाहिये क्योंकि उदाहरण ( दृष्टान्त ) की हानि हो जानेपर नियमसे इन हेतु और उपनयकी समीचीनता स्थिर नहीं रहपाती है । प्रतिज्ञास्वरूप पक्षका बाधा हो जानेपर स्वयं निगमनका परित्याग भी हो 1 जाता है । अतः निगमन हानि भी हुई और तिस प्रकार हो जानेपर प्रतिज्ञा किये गये की ही हानि है । इस प्रकार भाष्यकारका एकान्त आग्रह करना संगत नहीं है ।
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पक्षत्यागात्प्रतिज्ञायास्त्यागस्तस्य तदाश्रितेः । पक्षत्यागोपि दृष्टान्तत्यागादिति यदीष्यते ॥ ११२ ॥ हेत्वादित्यागतोपि स्यात् प्रतिज्ञात्यजनं तदा । ततः पक्षपरित्यागाविशेषानियमः कुतः ॥ ११३ ॥
यदि भाष्यकार वात्स्यायन यों इष्ट करें कि पक्षका त्याग हो जानेसे प्रतिज्ञाका भी त्याग हो जाता है। क्योंकि वह उसके आश्रित है, दृष्टान्तका त्याग हो जानेसे पक्षका त्याग भी हो गया है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो हेतु, उपनय आदिके त्यागसे भी प्रतिज्ञाका त्याग हो जावेगा । क्योंकि उस हेतु आदिकके त्यागसे पक्षका परित्याग कर देना यहां वहाँ विशेषताओंसे रहित हैं। ऐसी दशा हो जानेसे भाष्यकार द्वारा किया गया नियम कैसे रक्षित रह सकता है ? अर्थात् —जब हेतु आदिकके त्यागसे भी प्रतिज्ञा की हानि सम्भवती है तो पक्षके त्यागसे ही प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान हो जाता है । यह नियम तो नहीं रहा ।
साध्यधर्म प्रत्यनीकधर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिदृष्टांतधर्म स्वदृष्टांतेनुजानन् प्रतिज्ञां जहातीति प्रतिज्ञाहानिः । यथा अनित्यः शब्दः ऐदियकत्वात् घटवदिति ब्रुवन् परेण दृष्टद्रियकं सामान्यं नित्यं कस्मान्न तथा शद्ध इत्येवं प्रत्यवस्थितः । प्रयुक्तस्य हेतोराभासतामवस्यन्नपि कथावसानमकुर्वन्निश्चयमतिलंध्य प्रतिज्ञात्यागं करोति, यद्यद्रियकं सामान्यं नित्यं कामं घटोपि नित्योस्तु इति । स खल्वयं ससाधनस्य दृष्टांतस्य नित्यत्वं प्रसज्जन्निगमांतमेव पक्षं च परित्यजन् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्येति भाष्यकारमतमालूनविस्तीर्णमादर्शितम् ।
न्यायभाष्यका देख भी है कि साध्यस्वरूप धर्मके प्रतिकूल ( उल्टा ) धर्म करके प्रत्यवस्थानको प्राप्त हुआ वादी यदि प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मको अपने इष्ट दृष्टान्त में स्वीकार करनेकी