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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं, हम क्या करें | स्वामीकी अपेक्षा मनःपर्ययका स्वामी अभ्यई हो रहा विशेषोंसे युक्त है । मन:पर्यय के विषय सूक्ष्म हैं । अवधिज्ञानके संख्या में अत्यधिक विषय हैं । चार ज्ञानोंके निरूपण अनंतर केवलज्ञानका प्रतिपादन करना प्राप्तकाल है । किन्तु कारणवश उसका उल्लंघन किया जाता है । 1 केवलज्ञानका लक्षण दशमें अध्यायमें किया जायगा । यह बताकर भविष्य में दूसरा प्रकरण उठानेकी सूचना दी है ।
क्षेत्रविशुद्धिस्वामिविषयेभ्यो वधिमनोज्ञयोर्भेदः । अधिकरणात्मप्रसत्तिप्रभुप्रमेयेभ्य आम्नातः ॥ १ ॥
ra ज्ञानका विषय निर्धारण करनेके लिये प्रकरण प्रारम्भकर आदिमें कहे गये मति और श्रुतज्ञानोंकी विषय मर्यादाको कहनेवाला सूत्ररत्न श्री उमास्वामी महाराजके मुख आकरसे उद्योतित होता है ।
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल, इन संपूर्ण छहों द्रव्योंमें तथा इन द्रव्यों की कतिपय पर्यायोंमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय नियत हो रहा है ।
मत्यादिज्ञानेषु सभेदानि चत्वारि ज्ञानानि भेदतो व्याख्याय बहिरंगकारणतश्च केवलमभेदं वक्ष्यमाणकारणस्वरूपमिहाप्रस्तुतत्वात् तथानुक्त्वा किमर्थमिदमुच्यत इत्याह । सामान्यरूपसे मति, श्रुत, आदि ज्ञानोंमें मेदसहित वर्तनेवाले मति, श्रुत, अवधि, और मन:पर्यय, ये चार ज्ञान हैं । इन चारों ज्ञानोंको भेदकी अपेक्षासे तथा बहिरंगकारणरूपसे व्याख्यान कर तथा भेदरहित हो रहे एक ही प्रकार केवलज्ञान के कारण और स्वरूप दोनों भविष्य ग्रन्थमें कहे जायेंगे | अतः यहां प्रस्ताव प्राप्त नहीं होने के कारण तिस प्रकार नहीं कहकर फिर श्री 1 उमास्वामी महाराज द्वारा यह " मतिश्रुतयोः " इत्यादि सूत्र किस प्रयोजनके लिये कहा जा रहा है ? ऐसी तर्क भी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं ।
अथाद्यज्ञानयोरर्थविवादविनिवृत्तये ।
मतीत्यादि वचः सम्यक् सूत्रयन्सूत्रमाह सः ॥ १ ॥
. विषय प्रकरण के प्रारम्भमें ज्ञानोंकी आदिमें कहे गये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो
ज्ञानोंके विषयोंकी विप्रतिपत्तिका विशेषरूप से निवारण करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज इस "मतिश्रुतयोर्नबन्ध इत्यादि स्पष्ट कह रहे हैं ।
सूचना करा रहे वे प्रसिद्ध सूत्रस्वरूप समीचीन वचनको
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