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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
करनेमें नियुक्त हो गया हूं। इस प्रकार " नि " यानी निरवशेष तथा " योग" यानी मन वचन काय और आत्माकी एकाग्रता होकर प्रवृत्ति हो जाना नियोग है । नियुक्त किये गये व्यक्तिका नियोग्य कर्ममें परिपूर्ण योग लग रहा है। उसमें अत्यल्प भी योग नहीं लगनेकी आशंकाकी सम्भावना नहीं है । भावार्थ-जैसे कि स्वामिभक्त सेवक या गुरुभक्त शिष्यके प्रति स्वामी या गुरु विवक्षित कार्यको करनेकी आज्ञा दे देते हैं कि तुम दिल्लीसे बादाम देते आना अथवा तुम शाकटायन व्याकरण पढो तो वे भद्रजीव उन कार्यों में परिपूर्ण रूपसे नियुक्त हो जाते हैं। कार्य होनेतक उनको बैठते, उठते, सोते, जागते कल नहीं पडती है । सदा उसी कार्यमें परिपूर्ण योग लगा रहता है। इसी प्रकार प्रभाकर पण्डित " यजेत " इत्यादिक वाक्योंको श्रवणकर नियोगसे आक्रान्त हो जाते हैं । प्रसव, विवाह, प्रतिष्ठा आदिके अवसरपर नाई आदि नियोगी पुरुष अपने कर्तव्यको पूरा करते हैं। तभी तो उनके नेग ( नियोग ) का परितोष दिया जाता है।
___स चानेकधा, केषांचिल्लिङादिप्रत्ययार्थः शुद्धोऽन्यनिरपेक्षा कार्यरूपो नियोग इवि मतम् ।
और यह नियोग तो अनेक प्रकारका है । मीमांसकोंके प्रभाकर, भट्ट, मुरारि ये तीन भेद हैं। प्राभाकरोंकी भी अनेक शाखायें हैं । अतः किन्हीं प्राभाकरोंके यहां यजेत्, विनुयात्, आदिमें पडे हुये लिङ् प्रत्यय ( त ) और गच्छतु, पजताम् आदिमें पडे हुये कोट्प्रत्यय अथवा यष्टव्यं, श्रोतव्यं, आदिमें पडे हुये तव्य प्रत्ययका अर्थ तो अन्य धात्वर्थ, स्वर्गकाम, आत्मा, आदिकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ शुद्ध कार्यस्वरूप ही नियोग है । इस प्रकारका मत है । उनका प्रन्थ वचन इस प्रकार है सो सुनो।
प्रत्ययाथों नियोगश्च यतः शुद्धः प्रतीयते । कार्यरूपश्च तेनात्र शुद्धं कार्यमसौ मतः ॥ ९६ ॥ विशेषणं तु यत्तस्य किंचिदन्यत्प्रतीयते । प्रत्ययाथों न तद्युक्तः धात्वर्थः स्वर्गकामवत् ॥ ९७ ॥ प्रेरकत्वं तु यत्तस्य विशेषणमिहेष्यते । तस्याप्रत्ययवाच्यत्वात् शुद्धे कार्य नियोगता ॥ ९८ ॥
जिस कारणसे कि प्रययोंका अर्थ शुद्ध कार्यस्वरूप नियोग प्रतीत हो रहा है, तिस कारण यहां वह नियोग शुद्धकार्यस्वरूप माना गया है । उस नियोगका जो कुछ भी अन्य विशेषण .प्रतीत हो रहा है, वह लिडू आदि प्रययोंका अर्थ माना जाय यह तो युक्तिपूर्ण नहीं है। जैसे