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तत्वार्थचिन्तामणिः
तथा मतिज्ञानके सहज ही विपर्यय हो सकते हैं । एक बात यहां यह भी समझने की है कि हेतुकी साध्यके साथ अभेद विवक्षा करनेपर हेतुसे उत्पन्न हुआ साध्यज्ञान तो मतिज्ञानरूप अनुमान है।
और हेतुसे साध्यका अर्थान्तरभाव होनेपर हेतुसे हुआ साध्यज्ञान श्रुतज्ञानरूप अनुमान है । स्वार्थानुमानको मतिज्ञान और परार्थानुमानको श्रुतज्ञानस्वरूप भी कह सकते हैं ।
संपति वाक्यार्थज्ञानविपर्ययमाहार्य दर्शयमाह।
अब इस समय श्रुतज्ञान के विशेष हो रहे वाक्यार्थज्ञानके आहार्यविपर्ययको दिखलाते हुये प्रन्थकार कहते हैं । अर्थात्-गच्छेत्, पचेत्, यजेत् , इत्यादिक विधिलिङ् अन्तवाले वाक्योंके अर्थको जाननेमें मीमांसक, अद्वैतवादी, या सौगत आदिकोंको जो चलाकर विपर्ययज्ञान हो रहा है, उसका प्रदर्शन करते हैं।
नियोगो भावनैकाताद्धात्वर्थो विधिरेव च । यंत्रारूढादि चार्थोन्यापोहो वा वचसो यदा ॥ ९४ ॥ कैश्चिन्मन्येत तज्ज्ञानं श्रुताभं वेदनं तदा। तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वतः ॥ ९५॥
किन्हीं प्रभाकर मीमांसकों करके विधिलिङ् लकारान्त वाक्योंका अर्थ नियोग माना जाता है। और किन्हीं भट्ट, मीमांसकों करके वाक्यका अर्थ एकान्त रूपसे भावना मानी जा रही है । तथा किन्हीं ब्रह्माद्वैतवादियों करके सत्तामात्र शुद्ध धात्वर्थ विधिको ही विधिसिङन्त वाक्यका अर्थ स्वीकार किया जाता है । अथवा बौद्धों करके वचनका अर्थ अन्यापोह इष्ट किया जाता है । प्रमाकरोंने नियोगके यंत्ररूढ पुरुष आदिक ग्यारह भेद माने हैं । यहां हमें यह कहना है कि उन प्रभाकर, कुमारिल भट्ट, ब्रह्माद्वैतवादी, आदि पण्डितोंकरके जिस समय स्वकीय मत अनुसार उन बाक्योंका ज्ञान हो रहा है, उस समय वह ज्ञान, कुश्रुतज्ञान या श्रुतज्ञानाभास है । क्योंकि जैसा वे वाक्यका अर्थ वखान रहे हैं, उस प्रकार वाक्य अर्थके निर्णयको विधान करने के लिये उनकी अशक्यता है। अर्थात्-नियोग, भावना आदिको वाक्यका अर्थ कैसे भी कठिनतासे वे निर्णय नहीं कर सकते हैं।
___ का पुनरयं नियोगो नाम नियुक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगस्तत्र मनागप्ययोगाशंकायाः संभवाभावात् ।
___यह प्रभाकर मीमांसकों द्वारा माना गया नियोग नामका भला क्या पदार्थ है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर उनके मत अनुसार उत्तर दिया जाता है कि मैं इस वाक्य करके अमुक कर्म