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तत्त्वार्यश्शोकवार्तिके
जलप्रवाह अर्थ तो अभिधाशक्तिसे प्राप्त होता है । और घोषपदका सममिव्यवहार हो जानेपर गंगा तीर अर्थ करना लक्षणावृत्तिसे निकलता है । जिस शब्दके शक्यार्थ दो हैं, वहां एक शक्यार्थके निर्णय करानेवाले विशेषका अभाव होनेसे प्रतिवादी द्वारा वादीके अनिष्ट हो रहे शक्यार्थकी कल्पना करके दूषण कथन करना तो वाक्छल है। जैसे कि नवकंबलका अर्थ नौ संख्यावाले कंवल गढ कर प्रस्यवस्थान दिया तथा शक्ति और लक्षणा नामक वृत्तियोंमेंसे किसी एक वृत्ति द्वारा शब्दके प्रयोग किये जानेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा जो निषेध किया जाना है, वह उपचार छल है। जैसे कि मचान गा रहे हैं, यहां वादीको लक्षणा वृत्तिप्से मंचका अर्थ मंचस्थ पुरुष अभीष्ट है । शक्यार्थ मचान अर्थ अभीष्ट नहीं है । लोकमें भी वही अर्थ प्रसिद्ध है। ऐसी दशामें प्रतिवादी द्वारा मचान अर्थ कर निषेध उठाया जाता है । वहाँ अर्थान्तरकी कल्पना है और यहाँ अर्थ सद्भावका प्रतिषेध किया गया है। " वाक्छलमेवोपचारच्छलं तदविशेषात् " इस सूत्रद्वारा पूर्वपक्ष उठाकर " न तदर्थान्तरभावात् " अविशेषे वा किञ्चित्साधादेकच्छलप्रसङ्गः" इन दो सूत्रोंसे उत्तरपक्षको पुष्ट किया है। ___ अत्राभिधानस्य धर्मो यथार्थप्रयोगस्तस्याध्यारोपो विकल्प: अन्यत्र दृष्टस्यान्यत्र प्रयोगः मंचाः क्रोशंति गायंतीत्यादौ शब्दप्रयोगवत् । स्थानेषु हि मंचेषु स्थानिनां पुरुषाणां धर्ममाक्रोष्टित्वादिकं समारोप्य जनैस्तथा प्रयोगः क्रियते गौणशब्दार्थश्रयणात् । सामान्यादिष्वस्तीति शब्दप्रयोगवत, तस्य धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यर्थस्य प्रतिषेधनं न मंचा: कोशंति मंचस्थाः पुरुषाः क्रोशंतीति । तदिदमुपचारछलं प्रत्येयं । धर्मविकल्पनिर्देशे अर्थ सद्भावप्रतिषेध उपचारछलं इति वचनात् ।
यहां न्यायभाष्यकार कहते हैं कि शब्दका धर्म यथार्थ प्रयोग करना है, यानी जैसा अर्थ अभीष्ट हो उसीके अनुसार शब्दका प्रयोग आवश्यक है । उसका विकल्प करना यानी अन्यत्र देखे का दूसरे अन्य स्थानोंपर प्रयोग करना यह आरोप है । उसका निर्देश करनेपर अर्थके सद्भावका निषेध कर देना उपचार छल है। जैसे कि मचान चिल्ला रहे हैं, गा रहे हैं, बुला रहे हैं, रो रहे हैं, अथवा देवदत्त नित्य है, इस वाक्यपर कोई कटाक्ष करे कि माता पितासे उत्पन हुमा देवदत्त भला नित्य कैसे हो सकता है ? गंगायां घोषः कहनेपर गंगाजलके प्रवाहमें गांव के सद्भावका निषेध करने लगे यह भी उपचार छछ है । तथा श्लेषयुक्त पदोंके प्रयोग करनेपर भी उपचारछल किया जा सकता है। जैसे कि " जिनेंद्रस्तवनं यस्य तस्य जन्म निरर्थकं । जिनेन्द्रस्तवनं नास्य सफलं जन्म तस्य हि " इसका स्थूल रीतिसे अर्थ व्यक्त ही है कि जिस मनुष्यके जिनेंद्रकी स्तुति विधमान है, उसका जन्म व्यर्थ जा रहा है । और जिसके जिनेन्द्रदेवका स्तवन करना नहीं पाया जाता है, उसका जन्म निश्चयसे सफल है। किन्तु यह किसी पक्के जिनभक्तका बनाया हुआ पथ है। उस भक्तने दिवादि गणकी यसु प्रयत्ने, तसु उपक्षये, असु क्षेपणे इन धातुओंसे लोट् लकारके मध्यम