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तत्वार्थचिन्तामणिः
देखा जाता है । बम्बई प्रान्तमें उपजनेवाले जाम्रफलको बम्बई आम कह देते हैं। अधिक लड्डू खानेवाले या मोदकमें प्रीति रखनेवाले विद्यार्थीको लड्डुविद्यार्थी कह देते हैं। गंगाके किनारेपर ग्बालोंका गांव है । इस अर्थमें गंगामें घोष है, ऐसा शब्द प्रयोग हो रहा है। यहां स्थानोंमें ठहरनेवाळे आधेय स्थानियोंके धर्मका आधारभूत स्थानोंमें आरोपकर मनुष्योंकरके शब्द व्यवहार कर लिया जाता है । शब्दके गौण अर्थका आश्रय कर मंचमें मंचस्थपनेका आरोप है । जैसे कि सामान्य विशेष आदि पदार्थोंमें गौणरूपसे सत्ता मान ली जाती है । अन्यथा उन सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थोका सद्भाव ही उठ जायगा । अर्थात्-नैयायिक या वैशेषिकोंने द्रव्य, गुण, कर्ममें तो मुख्यरूपसे सत्ता जातिको समवेत माना है और सामान्य, विशेष, समवाय, पदार्थोमें गौणरूपसे सत्ता [ अस्तित्व ] धर्मको अभीष्ट किया है। उसी प्रकार मंचका मुख्य अर्थ तो मचान हैं। और गौण अर्थ मंचपर बैठे हुये मनुष्य हैं। तहां वादी द्वारा प्रसिद्ध हो हे गौण अर्थको कहनेवाला मंच शद्वका मंचस्थ अर्थमें प्रयोग किये जानेपर यदि वहां शर्के मुख्य अर्थका प्रतिषेध कर देना नैयायिकोंके यहां उपचारछल व्यवस्थित किया गया है। मचान तो गीतोंको नहीं गा सकते हैं । मचान पर बैठनेवाले भले ही चिल्लायें, यह प्रतिवादीका व्यवहार छलपूर्ण है । अतः वादीका जय और छली प्रतिवादीका पराजय होना अवश्यम्भावी है।
न चेदं वाक्छलं युक्तं किंचित्साधर्म्यमात्रतः। स्वरूपभेदसंसिद्धेरन्यथातिप्रसंगतः ॥ ३०३ ॥ कल्पनाथांतरस्योक्ता वाक्छलस्य हि लक्षणं । सद्भतार्थनिषेधस्तूपचारछललक्षणम् ॥ ३०४ ॥
मैयायिक ही कहते जा रहे हैं, कि यह तीसरा उपचारछल केवल कुछ थोडासा समानधर्मापन मिल जानेसे पहिले वाक्छलमें गर्मित कर लिया जाय, यह तो किसीका कथन युक्तिसहित नहीं है, क्योंकि उनके लक्षण भेद प्रतिपादक भिन्न भिन्न स्वरूपोंकी भले प्रकार सिद्धि हो रही है। अन्यथा यामी स्वरूपमेद होनेपर भी उससे पृथक् नहीं मानोगे तो अतिप्रसंग हो जायेगा। तीनों छल एक बन बैठेंगे । अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्रमा, मूर्ख, विद्वान, ये सब एकम एक सांकर्यग्रस्त हो जायंगे, जब कि बक्ताके अभिप्रायसे भिन्न दूसरे अर्थकी कल्पना करना तो पहिले बाक्छलका लक्षण किया गया, और विद्यमान हो रहे सद्भूत अर्थका निषेध कर देना तो अब उपचार छलका लक्षण सूत्रकार द्वारा कहा गया है, अतः ये दोनों न्यारे न्यारे है । नैयायिकोंने शक्ति और लक्षणा यों शद्वोंकी दो वृत्तियां मानी हैं । शब्दकी वाचकशक्तिसे जो अर्थ निकलता है, वह शक्या है, और तात्पर्यकी अनुपपत्ति होनेपर शक्यार्थके संबंधी अन्य अर्थको लक्ष्यार्थ कहते हैं । जैसे कि गंगाका
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