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________________ ०५१ तत्वार्थचिन्तामणिः बनाकर यो अर्थ किया है कि पुरुषमें श्य विकरण करनेपर एकवचनके रूप यस्य, तस्य, अस्य हे भव्य, जिनेन्द्र भगवान् के स्तवन करनेका प्रयत्न करो ! साथ ही अबतक (स्तवन से पूर्वकालत क) व्यर्थ हो रहे जन्मका नाश करो। तुम जिनेंद्र के स्तवनको कभी नहीं फेकों, यदि जिनेंद्रस्तवनका निरादर करोगे तो सफल हो रहे जन्मको नष्ट करोगे । इस प्रकार वक्ता के अभिप्राय से कहे गये गौण शब्दार्थका पुनः प्रसिद्ध हो रहे प्रधानभूत अर्थकी कल्पना कर प्रतिषेध करना उपचार छल है । "नाथ मयूरो नृत्यति तुरगाननवक्षसः कुतो नृत्यं । ननु कथयामि कलापिनमिह सुकलापी प्रिये कोऽस्ति” अङ्गुल्याः कः कपाटं घटयति कुटिलो ( प्रश्न ) माधव: ( उत्तर ) किम् वसन्तो ( कटाक्ष ) नो चक्री ( उत्तर ) किं कुळालो ( प्रश्न ) न हि धरणिधर : ( उत्तर ) किं द्विजिह्नः फणीन्द्रः ( प्रश्न ) ॥ नाहं घोराहिमदी ( उत्तर ) किमुत खगपतिः ( प्रश्न ) नो हरिः ( समाधान ) किं कपीन्द्रः ( आक्षेप ) इत्येवं सत्यभामाप्रतिवचनजितः पातु वचक्रपाणिः ॥ २ ॥ तन्वन्कुत्रलयतुष्टिं वारिजोलासमाहरन् । कलानिधिरसो रेजे समुद्रपरिवृद्धिदः ॥ ३ ॥ कस्वं ( प्रश्न ) शूळी ( उत्तर ) मृगय भिषजं ( कटाक्ष ) नीलकण्ठः प्रियेऽइम् ( समाधान ) । केकामेकां वद ( कटाक्ष ) पशुपति: (उत्तर) नैव विषाणे ( कटाक्ष ) || मिक्षुर्मुग्धे ( स्वनिवेदन ) न बदति तरु (आक्षेप ) जीवितेशः शिवायाः ( स्वपरिचय ) गच्छाटव्यां ( कटाक्ष ) इति इतवचा पातुं वश्चद्रचूडः ॥ ४ ॥ इत्यादि प्रकार के 66 "" पयुक्त पदोंके प्रयोगसे भी उपचारछल किया जा सकता है । लाक्षणिक या श्लिष्ट अथवा ध्वनि युक्त शब्दों के प्रयोगसे वादीका ही अपराध समझा जाय यों तो नहीं कहना । क्योंकि उस उस अर्थ के बोधकपने करके प्रसिद्ध हो रहे शब्दोंका प्रयोग करनेमें वादीका कोई अपराध नहीं है। चूंकि यहां प्रकरण में अधिकरण या स्थानस्वरूप हो रहे मचानोंमें स्थानवाले आधेय पुरुषोंके धर्म गाना, गाली देना, रोना आदिका अच्छा आरोप कर व्यवहारी मनुष्योंकरके तिस प्रकार शब्दों का प्रयोग किया जाता है । जैसे कि सत्तावन्तस्त्रयस्त्वाद्याः द्रव्य, गुण, कर्म, तीन तो सत्ता जातिके समवाय सम्बन्धवाले हैं। शेष सामान्य, विशेष, समवायोंमें गौणरूपसे अस्ति शब्दका प्रयोग माना गया । उसी प्रकार शब्दके गौण अर्थका आश्रय कर मंच शब्द कहा गया है । वादीद्वारा उसके धर्मका अध्यारोप कथन करनेपर पुनः प्रतिवादीद्वारा शब्द के प्रधान अर्थका आश्रय कर उस अर्थका निषेध किया जा रहा है कि मचान तो नहीं गा रहे हैं । किन्तु मचानोंपर बैठे हुये मनुष्य गा रहे हैं । 1 तिस कारण लक्षण सूत्रका अर्थ करके यह उपचारछक समझ लेना चाहिये । गौतम ऋषिका इस प्रकार वचन है कि धर्मके विकल्पका कथन करनेपर अर्थके सद्भावका प्रतिषेध कर देना उपचारछक है । का पुनस्त्रार्थविकल्पोपपत्तिर्यथा वचनविघातश्छलमिति, अन्यथा प्रयुक्तस्याभिधानस्यान्यथार्थपरिकल्पनं । भक्त्या हि प्रयोगोऽयं मंचाः क्रोशतीति तात्स्थ्यात्तच्छन्दो
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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