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________________ ४५२ तत्वार्थकोकवार्तिके पचारात् प्राधान्थेन तस्य परिकल्पनं कृत्वा परेण प्रत्यवस्थान विधीयते । का पुनरुपचारो नाम ? साहचर्यादिना निमित्तेन तदभावेपि तद्वदभिधानमुपचारः। न्याय भाष्यकार यों ऊहापोह कर रहे हैं कि यहां उपचार छलमें फिर अर्थ विकल्पकी उपपत्ति क्या है ! जिससे कि वचनका विघात होकर यह छल समझा जाय । अर्थात्-"वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छळं " यह छलका सामान्य लक्षण है । उपचार छलमें अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे बादीके बचनका विघात होना यह सामान्य कथन अवश्य घटित होना चाहिये ! इसका उत्तर न्यायभाष्यकार स्वयं यों कहते हैं कि अन्य प्रकारों करके प्रयुक्त किये गये शब्द्वका दूसरे भिन्न प्रकारोंसे अर्थकी परिकल्पना करना अर्थ विकल्पोपपत्ति है । जब कि मचान गा रहे हैं, यह प्रयोग गौणरूपसे किया गया है। क्योंकि तत्र स्थितमें तत्को कहनेवाले शद्वका उपचार है। " तात्स्थाताच्छब्धं "। जैसे कि सहारनपुरमें स्थित हो रहे इक्षुदण्ड (पौंडा) में सहारनपुरपन धर्मकी कल्पना कर की जाती है, इस प्रकार गौण बोंमें शद्वोंकी लोकप्रसिद्धि होनेपर प्रधानपन करके उस अर्थकी सब बोरसे कल्पना कर दूसरे कपटी प्रतिवादी द्वारा दोष उत्थापन किया जा रहा है । पुनः न्यायमाष्यकारके प्रति किसीका प्रश्न है कि उपचार उलमें उपचारका अर्थ क्या है ! बताओ। उसका उत्तर वे देते हैं कि सहचारीपन, कारणता, क्रूरता, शूरता, चंचलता आदि निमित्तों करके उससे रहित अर्थमें भी प्रयोजनवश उसवालेका कथन करना उपचार है । निमित्त और प्रयोजनके अधीन उपचार प्रवर्तता है । मंचाः क्रोशन्ति, यहां सहचारी होनेसे मंचस्थको मंच कह दिया जाता है । " अनं वै प्राणाः " प्राणके कारण अन्नको प्राण कह दिया जाता है । धनं प्राणाः प्राणके कारण अन्न और अनके कारण धनको उपचरितोपचारसे प्राण मान लिया जाता है । " पुरुषः सिंहः" क्रूरता, शूरताके निमित्त मनुष्यमें सिंहपनेका उपचार हो जाता है । चंचल बच्चेको अग्नि कह दिया जाता है । अग्निर्माणवकः । ऐसे उपचारको विषय करनेवाला छक उपचारछल है। ____ यद्येवं वाक्छलादुपपारछलं न भिद्यते अर्थातरकल्पनाया अविशेषात् । इहापि हि स्थान्यर्थो गुणशबः प्रधानशद्धः स्थानार्थ इति कल्पयित्वा प्रतिषिध्यते नान्यथेति । नैत सारं । अर्थान्तरकल्पनातीर्थसद्भावप्रतिषेधस्यान्यथात्वात्, किंचित्साधत्तियोरेकत्वे वा त्रयाणामपि छलानामेकत्वप्रसंगः। .. ____ न्यायभाष्यकारके ऊपर किसीका आक्षेप है कि यदि आप इस प्रकार मानेंगे तब तो वाक्छळसे उपचार छठका कोई भेद नहीं ठहर पायगा। क्योंकि अन्य अर्थकी कल्पना करना दोनोंमें एकसी है। कोई विशेषता नहीं है। अर्थात्-वाक्छळमें भी प्रतिवादी द्वारा अर्थान्तरको कल्पना की गयी है । और उपचार छलमें भी प्रतिवादीने अन्य प्रकारसे दूसरे अर्थकी कल्पना कर दोष उठाया है । देखिये मचान गा रहे हैं। यहां भी मञ्च शब्दका
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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