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तत्वावलोकवार्तिके
ततो नित्योप्यसावस्तु साधनं नोपपद्यते।
कारणस्याभ्यनुज्ञाना न नित्यः कथमन्यथा ॥ ४१०॥ न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ऋषि उपपत्तिसमके लक्षण सूत्रका यो व्याख्यान करते हैं कि शब्दके अनित्यपनको साधनेमें कारण प्रयत्नजन्यत्व है । इस कारण यह शब्द यदि अनित्य कहा जाता है, तब तो उस शद्बके नित्यपनमें भी ज्ञापक कारण हो रहा वह स्पर्शरहितपना विधमान है । तिस कारणसे वह शब्द नित्य भी उपपन्न हो जाओ, अन्यथा यानी कारण ( अस्पर्शत्व ) के होनेपर भी यदि साध्य (नित्यत्व ) को नहीं साधोगे तो शब्द अनित्य भी कैसे हो सकेगा ! वहां भी प्रयनजन्यत्वके होते हुये भी अनित्यपनका साधन नहीं बन सकेगा यदि कारणके । वर्त जानेसे शमें अनित्यपन की सिद्धि कर दोगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतुसे शर नित्य भी क्यों नहीं सिद्ध हो जायगा ? अर्थात्-होवेगा ही।
यद्यनित्यत्वे कारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सदस्यास्यास्तीत्यनित्यः शद्वस्तदा नित्यत्वे तस्य कारणमस्पर्शत्वमुपपद्यते । ततो नित्योप्यस्तु कथयनित्योन्यथा स्यादित्युभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च कारणोपपरया प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमो दूषणाभासः।
इन दो कारिकाओं का विवरण यों है कि यदि शद्बके अनित्यपनको साधनेमें ज्ञापक कारण प्रयत्नानन्तरीयकपना है, अतः शब्द अनित्य है, तब तो उस शद्बके नित्यपनमें भी ज्ञापक कारण स्पर्शगुणरहितपन विद्यमान है । तिस कारणसे शब्द नित्य भी हो जाओ । स्पर्शगुणसे रीता हो रहा आकाश नित्य है । उसी प्रकार गुण होनेसे किसी भी गुणको नहीं धारनेवाला स्पर्शरहित शब्द भी नित्य हो सकता है। कोई बाधा नहीं आती है। अन्यथा वह अनित्य मी कैसे हो सकेगा ! इस प्रकार दोनों ही अनित्यप्रन और नित्यपनके कारणोंकी उपपत्ति हो जानेसे प्रत्यवस्थान उठाना प्रतिवादीका उपपत्तिसम नामका दूवणाभास है । वस्तुतः दूषण नहीं होकर दूषणके सदृश है।
इत्येष हि न युक्तोत्र प्रतिषेधः कथंचन । कारणस्याभ्यनुज्ञादि यादृशं ब्रुवतां स्वयं ॥ ४११ ॥ शद्वानित्यत्वसिद्धिश्वोपपत्तेरविगानतः। व्याघातस्तु द्वयोस्तुल्यः स्वपक्षप्रतिपक्षयोः ॥ ४१२ ॥ साधनादिति नैवासौ तयोरेकस्य साधकः । एवं ह्येष न युक्तोत्र प्रतिषेधः कथं मतिः ॥ ४१३ ॥