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________________ १८ स्वार्थश्लोकवार्तिके स्वतो न तस्य संवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः । किमन्यस्य स्वसंवित्तिरन्यस्य स्यान्निराकृतिः ॥ ११ ॥ उस अनुभूयमान सम्वेदन की स्वोन्मुख स्वयं अपने आपसे केवल अपनी ही सम्बित्ति होना तो अन्य पदार्थोंका निराकरण करना नहीं हो सकेगा । भला विचारनेकी बात है कि क्या अन्य पदास्ववित्ति उससे दूसरे पदार्थों का निषेधस्वरूप हो सकती है ! कभी नहीं, अपने कानोंसे अपनी आंखोंको ढक लेनेवाले भयभीत शश ( खरगोश ) की अपेक्षा कोई अन्य मनुष्य पण्डओंका निषेध नहीं हो जाता है । पुस्तकके सद्भावको जान लेना चौकीका निषेधक नहीं है । निर्विकल्पक समाधिको धारनेवाले साधु शुद्ध आत्माको ही जाननेमें एकाग्र हो रहे हैं। एतावता जगत् के अन्य पदार्थों का निषेध नहीं हो सकता है । 1 स्वयं संवेद्यमानस्य कथमन्यैर्निराकृतिः । परैः संवेद्यमानस्य भवतां सा कथं मता ॥ १२ ॥ स्वकीय ज्ञानसन्तान अथवा परकीय ज्ञानसन्तान जो स्वयं भळे प्रकार जाने जा रहे हैं, उनका अन्य ज्ञान करके मला निराकरण कैसे हो सकता है ? देवदत्तके ज्ञान, इच्छा, दुःख, सुख आदिक जो स्वयं देवदत्तद्वारा जाने जा रहे हैं, उनका यज्ञदत्तद्वारा निषेध नहीं किया जा सकता है। हम नहीं समझते हैं कि आप बौद्धों के यहां दूसरोंके द्वारा सम्बेदन किये जा रहे पदार्थका अन्योंकरके निराकरण कर देना कैसे मान लिया गया है ? बात यह है जो तुच्छदीपक स्वयं अपने शरीर में ही थोडासा टिमटिमा रहा है, वह अन्य पदार्थोंकी निराकृति नहीं कर सकता है । अन्योका निषेध करनेके लिये बडी भारी सामग्री की आवश्यकता है । / परैः संवेद्यमानं वेदनमस्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तस्य निराकृतिरस्माकं मतेति चेत्, तर्हि तन्नास्तीति ज्ञातुमशक्तेस्तद्व्यवस्थितिः किन्न मता । ननु तदस्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव तन्नास्तीति ज्ञातुं शक्तिरिति चेत् तमास्तीति ज्ञातुमशक्यत्वमेव तदस्तीति ज्ञातुं शक्तिरस्तु विशेषाभावात् । बौद्ध यों कहें कि दूसरोंके द्वारा सम्वेदन किये जा रहे ज्ञान हैं, इस बातको हम नहीं जान सकते हैं, अतः उन अन्य वेद्यज्ञानोंका निराकरण हो जाना हमारे यहां मान किया गया है । इस प्रकार बौद्धों के कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि दूसरोंसे सम्वेदे जा रहे वे ज्ञान " नहीं है" इसको भी तो हम नहीं जान सकते हैं। अतः उन ज्ञानोंके सद्भावकी व्यवस्था क्यों नहीं मान की जाय ! हम छद्मस्थ जीव यदि परमाणु, पुण्य, पाप, परकीय सुख, दुःख, आदिकोंकी विधि मही करा सकते हैं तो उनका निषेध भी नहीं करा सकते हैं। यदि बौद्ध अपने मन्तव्यका फिर
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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