________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
फिर भी बौद्ध यदि यों मानते रहें कि क्या हुआ द्वितीयपक्ष अनुसार भले साध्यकी सिद्धि मत हो किन्तु फिर भी इस प्रकार शुद्ध सम्बेदनाद्वैतकी बढिया सिद्धि हो ही जाती है। तिस प्रकार होनेपर भी जैनोंकी ओरसे दिया गया सर्वशून्यपनेका प्रसंग तो नहीं पाया । शुद्ध क्षणिक ज्ञानपरमागुओंका अद्वैत प्रसिद्ध हो रहा है। इस प्रकार मान रहे बौद्धोंके प्रति श्रीविषानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
न चैवं सम्भवेदिष्टमद्वयं ज्ञानमुत्तमम् । ततोऽन्यस्य निराकर्तुमशक्तेस्तेन सर्वथा ॥ १० ॥
इस प्रकार ज्ञानोंका अद्वैत उत्तमरूपसे इष्ट हो रहा भी नहीं सम्भवता है। क्योंकि तिस शुद्ध ज्ञान करके उस ज्ञानसे मिन हो रहे घट, पट, स्वसन्तान, परसन्तान आदि विषयोंका सर्वथा निराकरण नहीं किया जा सकता है । अर्थात् जो केवल स्त्रको ही प्रकाशनेमें निमग्न हो रहा सन्ता अन्य कार्योंके लिये क्षीणशक्तिक हो गया है, वह ज्ञान बहिरंग और अन्तरंग ग्राह्य पदार्थीका किसी भी प्रकारसे निराकरण नहीं कर सकता है।
यथैव हि सन्तानान्तराणि स्वसन्तानवेदनानि चानुभूयमानेन संवेदनेन सर्वया विषातुं नशक्यन्ते तथा प्रतिषिदुमपि ।
____जिस ही प्रकार वर्तमान कालमें अनुभवे जा रहे सम्वेदन करके अन्य सन्तानोंके ज्ञानों और अपनी ज्ञानमालारूप सन्तानके विज्ञानोंकी विधि करानेके लिये शक्ति सर्वथा नहीं है । क्योंकि आप बौद्धोंने वर्तमान ज्ञानको केवळ स्वशरीरको ही प्रकाशनेमें ध्यानारुढ माना है । जो मोटा सेठ केवळ अपने शरीरको ही ढोनेमें पूरी शक्तियां लगा रहा है, वह भला दो चार कोसतक अन्य भांडे, वन
आदिकोंको कैसे लादकर चळ सकेगा ! अर्थात्-नहीं। अतः कोई भी वर्तमान में अनुभवा जारहा ज्ञान किसी भी अन्य सन्तान और स्वसन्तानके ज्ञानोंका विधान नहीं कर सकता है। उसी प्रकार वह ज्ञान अन्तरंग बहिरंग ज्ञेयोंके निषेध करने के लिये भी समर्थ नहीं हो सकता है। जो जिसका विधान नहीं कर सकता है, वह उसका कचित् निषेध भी नहीं कर सकता है। "येन यजयते सदभावस्तेनैव परिगृह्यते "।
तद्धि तानि निराकुर्वदात्ममात्रविधानमुखेन वा तत्मतिषेपमुखेन पा निराकर्यात् । प्रथमकल्पनायां दूषणमाह ।
भला आप बौद्ध विचारो तो सही कि वह अनुभवा जा रहा ज्ञान यदि उन' म्यारा स्वर सन्तानों का निराकरण भी करेगा तो क्या केवल अपनी विधिके मुख करके उनका निषेध करेगा! अथवा उन अन्य पदार्थोके निषेधकी मुख्यता करके निषेधेगा ? बताओ ! प्रथम कल्पना करने परंतो ओ दूषण पाते हैं, उनको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कहते हैं सो सुनो।