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________________ तवार्थचिन्तामणिः २४५ तया समभिरूढ्याश्रया विविधकल्पना सर्व पर्यायभेदाद्भिनं विवक्षितपर्यायस्याविक क्षितपर्यायत्वेनानुपलब्धेरिति तं प्रत्येवंभूताश्रया प्रतिषेधकल्पमा न सर्व पर्यायभेदादेव भिजे क्रियाभेदेन पर्यायस्य भेदोपलब्धेरिति । एतत्संयोगजाः पूर्ववत्परे पंचभंगा प्रत्येतव्या इत्येका सप्तभंगी । एवमेवा एकविंशतिसप्तभंग्यः। तथा समभिरूढ नयका आश्रय कर विधिकी यों कल्पना करना कि सम्पूर्ण पदार्थ न्यारी म्यारी पर्यायोंको कहनेवाले पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे भिन्न हो रहे ही अस्तिस्वरूप हैं, क्योंकि ' विवक्षामें प्राप्त की गयी पर्यायकी अविवक्षित अन्य पर्यायपने करके उपलब्धि नहीं हो पाती है । इस प्रकार कहनेवाले उस विद्वान्के प्रति एवंभूतनयका आश्रय लेती ई प्रतिषेधकी कल्पना कर लेना । क्योंकि पर्याय भेदोंसे ही मिन्न हो रहे सभी पदार्थ जगत में अस्ति हैं, यह नहीं हैं। किन्तु न्यारी न्यारी क्रियापरिणतियोंके मेद करके पर्यायोंके भेदकी उपलब्धि हो रही है। अतः एवंभूत की दृष्टिसे उस उस क्रिया परिणमते हुये ही अर्थ आ रहे हैं । रसोईको बनाते समय ही वह पाचक है । खाते, गाते, नहाते, सोते, जाते, सभी समयोंमें वह पाचक नहीं है । अतः सममिरूढ नयद्वारा जिस धर्मकी विधि की गयी थी, उसी धर्मका एवं भूतद्वारा प्रतिषेध कर दिया गया है। इन विधि और निषेधके संयोगसे जायमान अन्य पांच भंग भी पूर्वप्रक्रियाके समान समझ लेने चाहिये । अर्थात-सममिरूढ और एवंभूत नयोंकी क्रमसे विवक्षा करनेपर तीसरा उभय भंग है। समभिरूढ और एवंभूतके गोचर हो रहे धर्मोकी युगपत् विवक्षा करनेपर चौथा अवक्तव्य भंग है । विधिके प्रयोजक सममिरूढ नयका आश्रय करने और समभिरूढ, एवंभूत दोनों नयोंके एक साथ कथनका पाश्रय करनेसे पांचवा विधि अवक्तव्य भंग है । प्रतिषेधके प्रेरक एवम्भूत नयका आश्रय लेलेने और सममिरूढ एवंभूत दोनोंको एक साथ कहनेका आश्रय कर लेनेसे छट्ठा प्रतिषेधावक्तव्य भंग है । विधि प्रतिषेधोंके नियोजक नयोंका आश्रय करनेसे और युगपत् सममिरूढ एवंभूतोंकी विवक्षा हो जानेसे सातवें विधिप्रतिषेधावक्तव्य भंगकी कल्पना कर लेनी चाहिये । यह एक सप्तभंगी हुई । इस प्रकार छह, पांच, चार, तीन, दो, एक, ६+५+४+३+२+१=२१ ये सब मिलाकर इक्कीस सप्तभंगियां हुई। वैपरीत्येनापि तावत्या प्रपंचतोभ्यूह्या । . विपरीतपने करके भी उतनी ही संख्यावाली २१ सप्तभंगियां विस्तारसे स्वयं अपने आप तर्कणा करने योग्य हैं। अर्थात्-एवंभूतनयकी अपेक्षा रसोईको बनाते समय ही मनुष्य पाचक है। अन्य पर्यायोंमें या बहुवचन आदि कवस्थामें मन करनेका पर्यायमें, सामान्य मनुष्यपनके व्यवहारमें संगृहीत सत् पदार्थोंमें, और संकल्पित पदार्थोमें, वह पाचक नहीं है । अतः एवंभूत नयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्मको मानकर शेष छह नयोंकी अपेक्षा नास्तित्वको गढते हुये दो मूल भंगोंकी मित्ति पर
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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