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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
निषेधकी करपना कर लेना तथा समभिरूढनय और एवंभूतनयका आश्रय लेनेसे भी निषेधकी कल्पना कर लेना चाहिये । क्योंकि सभी पदार्थ केवल काल आदि द्वारा अभेदको धारनेवाली पर्यायों स्वरूप नहीं हैं । किन्तु काळ, लिंग, आदिके भेद करके अथवा भिन्न भिन्न पर्यायवाची शन्दोंके भेद करके एवं न्यारी न्यारी क्रिया परिणतियों करके भिन्न हो रही पर्यायें ही सिद्धिमार्गपर कांई जा चुकी हैं । अर्थात्-शब्द, सममिरूढ और एवंभूत, नय तो काल, कारक, रूढि और क्रिया परिणतियोंसे पृथक् पृथक् बन रही पर्यायोंका ही सत्त्व मानते हैं। वर्तमानकालकी सामान्यरूपसे हो रही पर्यायोंका अस्तित्व नहीं मानते हैं । अतः तीन प्रकारोंसे दूसरा भंग बन गया । मूलभूत दो भंगोंको बनाकर क्रम और अक्रमसे यदि दो नयोंको विवक्षित किया जायगा तो तीन प्रकारके तीसरे, चौथे, भंग बन जायंगे । जिनकी उत्तर कोटिमें अवक्तव्य पद लग गया है, ऐसें प्रथम द्वितीय और तीसरे भंग ही प्रक्रिया अनुसार ऊपर कहे गये नयोंके योगसे पांचवें, छठे, सातवें ये अन्य तीन भंग समझ लेने चाहिये । इस प्रकार ऋजुसूत्रनयसे अस्तित्वकी कल्पना करते हुये और शब्द सममिरूद, एवंभूत नयोंसे नास्तित्वको मानते हुये दो मूल भंगोंके द्वारा तीन सप्तभंगियां हुई ।
तथा शवनयाश्रयात् विधिकल्पना सर्व कालादिभेदाद्भिनं विवक्षितकालादिकस्यार्थस्थाविवक्षितकालादित्वानुपपत्तेरिति । तं प्रति समभिरूद्वैवंभूताश्रया प्रतिषेधकल्पना न सर्व कालादिभेदादेव भिन्नं पर्यायभेदात् क्रियाभेदाच भिन्नस्यार्थस्य प्रतीतेः इति मूलभंगद्वयं पूर्ववत् परे पंचभंगाः प्रत्येया इति द्वे सप्तभंग्यौ ।
तिसी प्रकार शद्वनयका माश्रय कर लेनेसे विधिकी कल्पना करना कि काल, कारक,आदिसे विभिन्न होते हुये सभी पदार्थ अस्तिस्वरूप हैं। क्योंकि विवक्षाको प्राप्त हो रहे काल, कारक, आदिकसे विशिष्ट हुए अर्थको अविवक्षित काल, कारक आदिसे सहितपना असिद्ध है । अर्थात्-सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने नियत काक, कारक, वचन, आदिको लिये हुये जगतमें विद्यमान हैं । इस प्रकार अस्तित्वकी कल्पना करनेवाले उस वादीके प्रति समभिरूढ़ और एवंभूत नयका आश्रय लेती हुई प्रतिषेध कल्पना कर लेनी चाहिये । कारण कि केवल काल, कारक, भादिके भेद होनेसे ही भिन मिन्न हो रहे सभी पदार्थ जगत में नहीं है। किन्तु पर्यायोंके मेदसे और क्रिया परिणतियोंके भेदसे मिन मिन वर्त रहे पदार्थोकी प्रतीति हो रही है । जब कि ये सममिरूढ और एवं मूतनय पर्याय और क्रिया परिणतियोंसे युक्त होकर परिणमें हुये पर्यायोंकी सत्ताको मानती हैं, तो ऐसी दशामें शद्वनयका व्यापक विषय इनकी दृष्टि में नास्ति ठहरता है । इस प्रकार दो मूल मंगोको बनाते हुये पूर्व प्रक्रियाके समान शेष परले पांच भंगों को भी प्रतीत कर लेना चाहिये । इस प्रकार शद्वनयकी अपेक्षा अस्तित्व और समभिरूढ एवं. भूतोंकी अपेक्षा नास्तित्व धर्मको मानते हुये दो मूल भंगों द्वारा एक एक सप्तभंगीको बनाते हुये दो सप्तभंगियां बन गयी समझ लेनी चाहिये ।