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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नहीं है। ऐसा ही श्री जैनन्याय ग्रन्थोंमें साध दिया गया है । आत्माके पुरुषार्थ या कारणोंसे तब ही (तदानीमेव ) बना लिये गये विशुद्धिके भेदसे शुद्धिका भेद होते हुये क्षयोपशमका भेद हो जाने पर ज्ञानभेद हो जाता है । प्रमाणप्रसिद्ध कार्यकारण मावोंमें कुचोद्य नहीं उठा करते हैं।
अदृष्टातिरेकोदयाक्षोत्थसौख्यातिदुःखाः स्मृतस्वाः सुरानारकाश्च । - स्वदेशावधेः प्राप्य सम्यक्स्वमेके भवप्रत्ययान्मुक्तिमागे प्रपन्नाः॥१॥
देवनारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञानका स्वामित्वनिरूपण किया जा चुका है। अतः अवसर संगति और क्रम अनुसार स्वयं जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि दूसरे प्रकारका अवधिज्ञान मला किसको कारण मानकर किन जीवोंके होता है ! इस प्रकार विनम्र शिष्योंकी बलवती जिज्ञासा हो जानेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रकेसरका मुखपद्मसे प्रसारण करते हैं, जिसकी कि सुगन्धसे भव्यमधुकरोंको विशेष उल्लास प्राप्त होवे ।
क्षयोपशमनिमित्तः षडिकल्पः शेषाणाम् ॥ २२॥
अवधिज्ञानावरणकर्मके सर्वघातिस्पर्धकोंका उदयाभाव या फल नहीं देकर घिर जानास्वरूप क्षय और भविष्यमें उदय आनेवाले सर्वघातिस्पर्धकोंका उदारणा होकर उदयावलीमें नहीं आना होते हुये वहांका वहीं बना रहनाखरूप उपशम तथा देशघातिस्पर्धकोंका उदय होनेपर क्षयोपशम अवस्था होती है। उस क्षयोपशमको निमित्त पाकर शेष कतिपय मनुष्य, तिर्यचोंके गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उस अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित और अनवस्थित ये छह प्रकारके विकल्प हैं। . किमर्थमिदमित्याह ।
यहां कोई पूछता है कि किस प्रयोजनको साधनेके लिये यह सूत्र श्री उमाखामी महाराजने कहा है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
गुणहेतुः स केषां स्यात् कियझेद इतीरितुम् । प्राह सूत्रं क्षयेत्यादि संक्षेपादिष्टसंविदे ॥१॥
वह गुणको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाला दूसरा अवविज्ञान भला किन जीवोंके होगा ! और उसके भेद कितने हैं ! इस बालका प्रदर्शन करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज " क्षयोपशमनिमित्तः षडिकल्पः शेषाणाम् " इस प्रकार सूत्रको संक्षेपसे अभिप्रेत अर्थकी सम्पित्ति करानेके लिये बहुत अच्छा कहते हैं।