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तत्वार्थकोकवार्तिके
एक ही हेतुकरके साध्यका ज्ञापन किया जा चुका है, तो दूसरे हेतुका कथन करना व्यर्थ है। जैसे कि एक दीपकके द्वारा मले प्रकार प्रकाश किया जा चुकनेपर पुनः अन्य दीपकोंका उपादान करना निष्प्रयोजन है । यदि कृतकृत्य हो चुकनेपर भी पुनः कारक, ज्ञापक, व्यंजक, तुओंका ग्रहण किया जायगा तो कृतका करण, चर्वितका चर्वण, इनके समान बनवस्था भी हो जायगी। क्योंकि हेतु द्वारा या प्रदीप द्वारा पदार्थोके प्रकाश युक्त हो चुकनेपर भी यदि अन्य साधनोंका उपादान किया जायगा तो उत्तरोत्तर अन्य साधनोंके ग्रहण करनेका प्रसंग हो जानेसे कहीं दूर चलकर भी अवस्थिति नहीं हो पावेगी। इस प्रकार उद्योतकर प्रमाण संप्लबका समर्थन कर रहा है । ऐसी दशामें वह स्वस्थ ( होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ? अर्थात्-एक ही अर्थमें बहुतसे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनेको प्रमाणसंप्लव कहते हैं । नैयायिक, जैन, मीमांसक, ये सभी विद्वान् प्रमाण संप्लवको स्वीकार करते हैं । किन्तु हमको आश्चर्य है कि अधिक नामका निग्रह हो जाने के भयसे उद्योतकर नैयायिक प्रकाशित कर पुनः प्रकाशन नहीं करना चाहते हैं। वे उद्योतकर एक प्रमाणसे जान लिये गये अर्थका पुनः द्वितीय प्रमाण द्वारा उद्योत करना तो स्वीकार नहीं करेंगे । एक ओर उद्योतकर पंडित प्रकाशितका पुनः प्रकाश नहीं मानते हुये दूसरी ओर प्रमाणसंहवको मान बैठे हैं। ऐसे पूर्वापरविरुद्ध वचनको कहनेवाला मनुष्य मूर्छाग्रसित है । स्वस्थ ( होश ) अवस्थामें नहीं है।
कस्यचिदर्थस्यैकेन प्रमाणेन निश्चयेपि प्रमाणांतरविषयत्वेपि न दोषो दाादिति चेत किमिदं दायं नाम ? सुतरां प्रतिपत्तिरिति चेत् किमुक्तं भवति, सुतरामिति सिद्धेः। प्रतिपत्तिभ्यां प्रमाणाभ्यामिति चेत्, तायेन प्रमाणेन निश्चितेर्थे द्वितीयं प्रमाणं प्रकाशितप्रकाशनबद्यर्थमनवस्थानं वा निश्चितेपि परापरप्रमाणान्वेषणात् । इति कयं प्रमाणसंपावः ?
यदि उद्योतकर यों कहें कि एक प्रमाण करके किसी अर्थका निश्चय हो जानेपर भी अन्य प्रमाण द्वारा उसको विषय करने में भी कोई दोष नहीं है । क्योंकि पहिले प्रमाणसे जाने हुये अर्थकी पुनः दूसरे प्रमाण द्वारा दृढतासे प्रतिपत्ति हो जाती है। इस प्रकार उद्योतकरके कहनेपर तो हम पूंछते हैं कि तुम्हारी मानी हुयी यह दृढता भला क्या पदार्थ है ! बताओ । स्वयं अपने आप विना परिश्रमके प्रतिपत्ति हो जानेको यदि ज्ञानकी दृढता मानोगे तब तो हम कहेंगे कि दूसरे प्रमाण द्वारा भला क्या कहा जाता है ! पदार्थको प्रतिपत्ति तो स्वयं उक्त प्रकारसे सिद्ध हो चुकी है। अतः दूसरे प्रमाणका उत्थापन व्यर्थ पडता है। यदि दो प्रमाणोंसे पक्की प्रतिपत्ति हो जाना दृढता है, तब तो हम कहेंगे कि आदिके प्रमाण करके ही जब अर्थका निश्चिय हो चुका था तो दूसरा प्रमाण उठाना प्रकाशितका प्रकाशक करने के समान व्यर्थ हो जाता है। दूसरी बात यह है कि