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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः तूदाहरणाभ्यां यद्वाक्यं स्यादधिकं परैः । प्रोक्तं तदधिकं नाम तच न्यूनेन वर्णितम् ॥ २२३ ॥ तत्वपर्यवसानायां कथायां तत्त्वनिर्णयः । ४०१ यदा स्यादधिकादेव तदा का नाम दुष्टता ॥ २२४ ॥ जो दूसरे विद्वान् नैयायिकों द्वारा अपने विचार अनुसार यह बहुत अच्छा कहा गया है, कि जो वाक्य हेतु और उदाहरणों करके अधिक है वह अधिक नामका निग्रहस्थान है, उपलक्षसे उपनय, निगमन, भी पकड सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि वह तो न्यून नामक निग्रहस्थानकी वर्णनासे ही वर्णित हो चुका है। अधिकके लिये उससे अधिक विचारनेकी आवश्यकता नहीं । एक बात यह है कि वादकथामें अन्तिम रूपसे तत्वोंका निर्णय नहीं होनेपर जब अधिक कथन से ही तत्वोंका निर्णय होगा तो ऐसी दशा में अधिक कथनको भला क्या निग्रहस्थान रूपसे दूषितपना हो सकता है ? अर्थात्-थोडे कथनसे जब तत्वोंका निर्णय नहीं हो पाता है, तो अधिक और अत्यधिक कहकर समझाया जाता है । अनेक स्थलोंपर अधिक कथनसे साधारण जन सरलतापूर्वक समझ जाते हैं । अतः अधिकका निरूपण करना गुण ही है । दोष नहीं । स्वार्थिके केधिके सर्वं नास्ति वाक्याभिभाषणे । तत्प्रसंगात्ततोर्थस्यानिश्चयात्तन्निरर्थकम् ॥ २२५ ॥ " सम्पूर्ण पदार्थ नित्य नहीं है । कृतक होनेसे यहां, कृत एव कृतकः इस प्रकार कृत शद्वके स्वकीय अर्थ हो " क 'प्रत्यय हो गया है । क प्रत्ययका कोई अधिक अर्थ नहीं है । स्वार्थ में किये गये प्रत्ययोंका अर्थ प्रकृतिसे अतिरिक्त कुछ नहीं होता है । अतः कृतक, देवता, शैली, भैषज्य इत्यादि स्वार्थिक प्रत्ययवाले पदोंसे समुद्धित हो रहे वाक्योंके कथन करनेपर वक्ताको उस अधिक निग्रहस्थानकी प्राप्तिका प्रसंग हो जायगा। हां, जहां कहीं उस अधिक व्यर्थ बकवाद से अर्थका निश्चय नहीं हो पाता है, सर्वथा व्यर्थ जाता है, इससे तो वह अधिक कथन निरर्थक निग्रहस्थान हो जायगा । व्यर्थ में अधिकको न्यारा अधिक निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं । सोयमुद्योतकरः, साध्यस्यैकेन ज्ञापितत्वाद्व्यर्थमभिधानं द्वितीयस्य, प्रकाशिते प्रदीपांतरोपादानवदनवस्थानं वा, प्रकाशितेपि साधनांतरोपादाने परापरसाधनांत रोपादानप्रसंगादिति ब्रुवाणः प्रमाणसं प्लवं समर्थयत इति कथं स्वस्थः १ सो यह उद्योतकर पण्डित अधिकको निग्रहस्थानका समर्थन करनेके लिये इस प्रकार कह रहा है कि दो हेतुओं को कहनेवाला वादी अधिक कथन करनेसे निगृहीत है । कारण कि जब 51
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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