SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ श्लोक वार्तिके आवश्यक है । किन्तु सभी विद्वानोंके प्रति उन पांचों अवयवोंका प्रयोग करना यह नियम नहीं स्वीकार किया जाता है । " सब धान पांच पसेरी ” नहीं करो । ४०० तर्हि यथाविधान्न्यूनादर्थस्य सिद्धिस्तथाविधं तन्निग्रस्थानमित्यपि न घटत इत्याह । तब तो नैयायिक कहते हैं कि अच्छा, नहीं सही, किन्तु जिस प्रकारके न्यून कथनसे अभिप्रेत अर्थकी भळे प्रकार सिद्धि नहीं हो सकती है । उस प्रकार वह न्यून कथन तो वक्ताका निग्रहस्थान हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह भी नैयायिकोंका मन्तव्य युक्तियोंसे घटित नहीं होता है । इस बातको ग्रन्थकार वार्त्तिकद्वारा कहते हैं । यथा चार्थाप्रतीतिः स्यात्तन्निरर्थकमेव ते । निग्रहांतर तोक्तिस्तु तत्र श्रद्धानुसारिणाम् || २२२ ॥ हां, जिस प्रकारके न्यून कथनसे अर्थकी प्रतीति नहीं हो सकेगी, वह तो तुम्हारे यहां निरर्थक निग्रहस्थान ही हो जायगा । पुनः उस न्यूनमें न्यारा निग्रहस्थानपनका कथन करना तो अपने दर्शनको अन्धश्रद्धा के अनुसार चलनेवाले नैयायिकों को ही शोभा देता है । शद्व स्वल्प और अर्थका गाम्भीर्य रखनेवाले विचारशाली विद्वानोंके यहां छोटे छोटे अन्तरोंसे न्यारे न्यारे निग्रहस्थान नहीं गढे जाते हैं । यञ्चोक्तं, हेतूदाहरणादिकमधिकं यस्मिन् वाक्ये द्वौ हेतू द्वौ वा दृष्टान्तौ तद्वाक्यमधिकं निग्रहस्थानं आधिक्यादिति तदपि न्यूनेन व्याख्यातमित्याह । जो भी नैयायिकोंने बारहवें " अधिक " नामक निग्रहस्थानका लक्षण यों कहा था कि वादी द्वारा हेतु, उदाहरण, आदि और प्रतिवादी द्वारा दूषण निग्रह आदिक अधिक कहे जायेंगे वह " अधिक " नामका निग्रहस्थान है । इसका अर्थ यों है कि जिस वाक्यमें दो हेतु अथवा दो दृष्टान्त कह दिये जायेंगे वह वाक्य अधिक निग्रहस्थान है । जैसे कि पर्वत अग्निमान् है । धूम होनेसे और आग की झलका उजीता होनेसे ( हेतु २ ) रसोई घर के समान, अधियाने के समान अन्वय दृष्टान्त २ ) यहां दो हेतु या दो उदाहरण दिये गये । अतः आधिक्य कथन होनेसे वक्ता का निग्रहस्थान है, यह नैयायिकोंका मन्तव्य है । अब आचार्य कहते हैं कि वह भी न्यून निग्रह - स्थानका विचार कर देने से व्याख्यान कर दिया गया है । भावार्थ - प्रतिपाथके अनुसार कहीं कहीं हेतु आदिक अधिक भी कह दिये जाते हैं । विना प्रयोजन ही अधिकोका कथन करना है, वह निरयेक निग्रहस्थान ही मान लिया जाय। हां, दूसरे विद्वानको अपने पक्षकी सिद्धि करना अनिवार्य होगा । व्यर्थमें अधिकको निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं, इस बातको ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा कहते हैं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy